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निश्चयनय और व्यवहारनय
अ. प्रतिपादक वाक्य . . ब. प्रतिपाद्य विषय स. प्रतिपादन का सन्दर्भ (अपेक्षा) द. प्रतिपादन का प्रयोजन
अ. प्रतिपादक वाक्य - इससे आशय जिनागम में उपलब्ध कथनों से है। सम्पूर्ण जिनागम में वस्तु-स्वरूप अथवा मोक्षमार्ग का प्रतिपादन किया गया है; अतः समग्र जिनागम में प्रतिपादक वाक्य ही हैं। जैसे, आत्मा ज्ञानस्वरूप है, आत्मा संसारी है, आत्मा देह से भिन्न है, अतः देहादि की क्रिया का कर्ता नहीं है अथवा आत्मा मनुष्य है, वह शरीरादि की क्रिया का कर्ता है....आदि सभी कथन प्रतिपादक वाक्य कहलाते हैं; क्योंकि वे किसी अपेक्षा से वस्तु-स्वरूप का ही कथन करते हैं।
ब. प्रतिपाद्य विषय - विभिन्न प्रकार के वचनों की वाच्यभूत वस्तु ही प्रतिपाद्य विषय है। यह जानना आवश्यक है कि यह बात किसके बारे में कही जा रही है, अन्यथा स्पष्ट निर्णय होने के बजाय संशय और विभ्रम खड़े हो जाएंगे।
जैसे, घी का घड़ा और घड़े का घी - ये दोनों कथन व्यवहारनय के हैं, परन्तु इनके प्रतिपाद्य विषयों में अन्तर है। घी का घड़ा कहने का आशय उस घड़े से है, जिसमें घी रखा है अर्थात् बात घड़े की ही है, घी की नहीं; अतः इस कथन का प्रतिपाद्य विषय घड़ा है, घी नहीं। इसीप्रकार घड़े का घी कहने का आशय उस घी से है, जो घड़े में रखा है अर्थात् बात उसके घी की है, घड़े की नहीं; अतः इस कथन का प्रतिपाद्य विषय घी है, घड़ा नहीं।
इस उदाहरण में दोनों वाक्य अलग-अलग हैं; परन्तु पंचेन्द्रियजीव' कहने में शरीर और जीव दोनों ही प्रतिपाद्य बिन्दु हो सकते हैं।