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________________ निश्चयनय और व्यवहारनय निरूपण किया जाए, उसमें भेदज्ञान और वीतरागता के प्रयोजन की सिद्धि किसप्रकार हो रही है - यह जानना भी अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा यथार्थ तत्त्व-निर्णय और सम्यग्दर्शन का पुरुषार्थ नहीं हो पाएगा। घी का घड़ा कहने का प्रयोजन घड़े में रखे हुए घी का ज्ञान कराना है। इसी प्रकार व्रत-शील-संयम को मोक्षमार्ग कहने का प्रयोजन, वे मोक्षमार्ग के निमित्त व सहचारी हैं - ऐसा ज्ञान कराना है, न कि इन्हें मोक्षमार्ग मानना। व्रत-शील-संयम को बन्ध के कारण कहने का प्रयोजन इन्हें वास्तविक मोक्षमार्ग न मानकर, वीतरागता को वास्तविक मोक्षमार्ग बताना है, न कि उन्हें छोड़कर स्वच्छन्द प्रवर्तन करना। इसप्रकार व्यवहारनय या निश्चयनय, किसी भी अपेक्षा से किये गये कथनों से आत्महित की पुष्टि करना अभीष्ट है। निश्चय-व्यवहारनय के प्रयोगों को गहराई से समझने पर निश्चयव्यवहारनय में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक सम्बन्ध समझना सरल हो जाता है। निश्चयनय को प्रतिपाद्य और व्यवहारनय प्रतिपादक कहने का आशय यह है कि व्यवहारनय के कथन से निश्चयनय का विषय ही कहा जाता है, अतः व्यवहारनय को ही पारमार्थिक सत्य न मानकर, उसके द्वारा कहे गए परमार्थ को ही समझना चाहिए, अन्यथा व्यवहाराभास का प्रसंग आता है। प्रश्न - कहें कुछ और समझें कुछ - ऐसा कैसे सम्भव है? जैसा कहेंगे, वैसा ही तो समझना पड़ेगा? उत्तर - भाई! हमारे दैनिक जीवन में भी ऐसे अनेक प्रसंग बनते हैं, जब हम मात्र शब्दानुसार अर्थ न समझकर, उसका भाव ग्रहण करते हैं, अन्यथा हम लोक-व्यवहार में भी मूर्ख समझे जाएँगे - इस आशय के कुछ प्रयोग निम्नानुसार हैं -
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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