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जिनागम के अनमोल रत्न]
[95 प्रतिकूलता के उत्पन्न होने पर जिस धैर्य का अवलम्बन लिया जाता है वह धैर्य ही प्रशंसनीय माना जाता है। अन्यथा प्रतिकूल सामग्री के अभाव में तो-सब ही मनुष्य शान्त रहकर सत्य, शौच एवं क्षमा का आश्रय लिया करते हैं। 1966।।
यदि लोक में सम्यग्ज्ञान और विवेक से शून्य मन वाले, पापी, गुणों में द्वेष करने वाले प्रशम, सत्य व सिद्धान्तसूत्र से पराङ्मुख; प्रयोजन के बिना भी शत्रुता पूर्ण व्यवहार करने वाले और दुर्जनता आदि से दूषित मनुष्य न होते तो फिर उत्कृष्ट बुद्धि के धारक भव्य जीव घोर तपश्चरण के द्वारा मुक्तिरूप लक्ष्मी की इच्छा ही क्यों करते ? नहीं करते ।।973 ।।
जो मनुष्य यद्यपि इच्छा के अनुसार शाक से भी अपने उदर को पूर्ण करने के लिये समर्थ नहीं होते, वे भी लोभ के वश चक्रवर्ती की लक्ष्मी की इच्छा किया करते हैं ।।1004।।
प्राणी का मन निराकुल होकर जिस प्रकार विषयों में मग्न होता है उस प्रकार यदि वह आत्मा के स्वरूप मैं निमग्न होता तो फिर शीघ्र ही कौन न मुक्त हो जाता? अर्थात् सभी शीघ्र मुक्त हो सकते थे। 1024।।
वह जीव जिस प्रकार निरन्तर काम और अर्थ-धन की इच्छा करता हुआ यहाँ खेद का प्राप्त होता है उस प्रकार यदि वह आत्मप्रयोजन के सिद्ध करने में प्रयत्नशील होकर खेद को प्राप्त होता तो क्या मुक्ति को प्राप्त न हो जाता? अवश्य हो जाता। 1070।।
ध्यान का प्रधान कारण यह चतुष्टय है-1. गुरू का उपदेश, 2. उपदेश पर भक्ति, 3. सतत् चिन्तन और 4. मन की स्थिरता।।1072 ।।
जो स्वतन्त्रता से प्रवृत्ति करने वाले उस एक चित्त के जीतने में समर्थ नहीं है, परन्तु ध्यान की बात करता है; वह मूर्ख इस लोक में लज्जा को प्राप्त क्यों नहीं होता? n095 ।।