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[जिनागम के अनमोल रत्न जो सब प्राणियों के लिये रात्रि है-स्वपर भेद सम्बन्धी अज्ञान है-उसमें योगी जागता है तथा अन्य प्राणी जिस रात में जागते हैं-जिस विषयानुराग में प्रतिबुद्ध रहते हैं - वह आत्मस्वरूप को देखने वाले मुनि के लिये रात्रि हैवह उसमें सदा अप्रतिबुद्ध रहता है। तात्पर्य यह है कि आत्मावबोध का न होना रात्रि के समान तथा उसका होना दिन के समान है।।924।।
दृश्यन्ते भुवि किं न ते कृतधियः संख्याव्यतीताश्चिरं। ये लीलां परमेष्ठिनः प्रतिदिनं तन्वन्ति वाग्भिः परम्।। तं साक्षादनुभूय नित्यपरमानन्दाम्बुराशिंपुनये जन्मभ्रममुत्सृजन्ति सहसा धन्यास्तु ते दुर्लभाः।
जो प्रतिदिन केवल वचनों के द्वारा ही परमात्मा की लीला का विस्तार करते हैं वे बुद्धिशाली क्या चिरकाल तक असंख्यात नहीं दिखते हैं? अवश्य दिखते हैं। परन्तु जो शाश्वतिक एवं उत्कृष्ट आनन्द के समुद्रस्वरूप उस परमात्मा का स्वयं प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करके संसार परिभ्रमण का परित्याग करते हैं-मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होते हैं वे ही प्रशंसनीय है और वे अत्यन्त दुर्लभ हैं।।926।।
__ यदि मेरा भी मन इन क्रोधादि कषायों के द्वारा ठगा जाता है, अर्थात् वस्तुस्वरूप को जानते हुए भी यदि मैं क्रोधादि कषायों के वशीभूत होता हूँ तो फिर अतत्त्वज्ञ और तत्त्वज्ञ इन दोनों में भला भेद ही क्या रहेगा? कुछ भी नहीं। 1947।।
यदि वचनरूप कांटों से विद्ध होकर मैं क्षमा का आश्रय नहीं लेता हूँक्रोध को प्राप्त होता हूँ-तो फिर मुझमें इस गाली देने वाले की अपेक्षा विशेषता ही क्या रहेगी? कुछ भी नहीं-मैं भी उसी के समान हो जाऊंगा।।952।।
यदि मैं इस समय शान्ति की मर्यादा को लांघकर शत्रु के ऊपर क्रोध करता हूँ तो फिर मेरे इस ज्ञानरूप नेत्र का उपयोग कब हो सकता है। 955।।