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जिनागम के अनमोल रत्न ]
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पहुँचाते हैं, उसी प्रकार धनवान मनुष्य को अपने कुटुम्बीजन भी घेरकर पीड़ा पहुँचाया करते हैं । 1856 ।।
जिसका अन्त:करण नैराश्यरूप अमृत के प्रवाह से पवित्र हो चुका है उसका शान्तिरूप लक्ष्मी मित्रता में बद्ध होकर उत्कण्ठापूर्वक आलिंगन किया करती।।876 ।।
जिनका मन दुर्लंघ्य आशारूप कीचड़ में निमग्न नहीं होता, उन्हीं का ज्ञानरूप वृक्ष इस लोक में फलशाली होता है । 1877 ।।
अज्ञानी बहिरात्मा बाह्य में ग्रहण व त्याग को करता है और तत्त्व का वेत्ता अन्तरात्मा अभ्यन्तर ग्रहण व त्याग को करता है । परन्तु शुद्धात्मा न तो बाह्य में ग्रहण व त्याग को किसी प्रकार से करता है और न अभ्यन्तर में भीः ।।1572 ।।
निर्णीतेऽस्मिन् स्वयं साक्षान्नापरः कोऽपि मृग्यते । रत्नत्रयस्यैष प्रसूते र्वी जमग्रिमम् ।
यतो
प्रत्यक्ष मैं स्वयं ही उस रत्नत्रय स्वरूप आत्मा का निश्चय हो जाने पर फिर अन्य किसी की भी खोज नहीं की जाती है । कारण यह कि रत्नत्रय की उत्पत्ति का मुख्य स्थान यह आत्मा ही है | 1913 ।।
एतदेव परं तत्त्वं ज्ञानमेतद्धि शाश्वतम् । अतोऽन्यो यः श्रुतस्कन्धः स तदर्थं प्रपञ्चितः । ।
यही (आत्मा) निश्चय से उत्कृष्ट तत्त्व है और वही शाश्वत ज्ञान है, इसके अतिरिक्त अन्य जो श्रुतस्कन्ध-आगमसमूह अथवा आगमरूप वृक्ष का स्कन्ध है- उसका विस्तार इस उत्कृष्ट तत्त्व के जानने के लिये ही किया गया है।।918।।
या निशा सर्वभूतेषु तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।।