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[जिनागम के अनमोल रत्न जिस मुनि का मन वश में नहीं हुआ है उसका तप, शास्त्राभ्यास, संयम, ज्ञान और कायक्लेश आदि का आश्रय लेना तुषखण्डन के समान धान्य के कणों से रहित कोरे भूसे के समान व्यर्थ ही है। 1099।।
जो योगी साम्यभाव का आश्रय ले चुका है उसको समस्त जगत उन्मत्त (पागल), विपरीतता को प्राप्त, दिशा को भूला हुआ अथवा सोया हुआ जैसा प्रतिभाषित होता है। 1177।।
जितेन्द्रिय योगी जब इन भावनाओं के साथ निरन्तर समस्त लोक का चिन्तन करता है तब वह उदासीनता को प्राप्त होकर राग-द्वेष से मुक्त होता हुआ यहाँ ही सिद्ध के समान आचरण करता है-मुक्ति उसके निकट आ जाती है।n285।।
___ ध्यान की सिद्धि-सिद्धक्षेत्र में, ऋषि-महर्षि आदि किन्हीं पुरातन पुरूषों से अधिष्ठित अन्य उत्तम तीर्थ में और तीर्थंकर के गर्भ-जन्मादि कल्याणकों से सम्बद्ध पवित्र क्षेत्र में होती है। 1302 ।।
संयम का साधक योगी, संसार भ्रमण को शान्त करने के लिये समुद्र के समीप में, वन के अन्त में, पर्वतशिखरों के मध्य में, नदी आदि के तट पर, पद्मसमूह के अन्त में, पर्वत के शिखर पर या गुफा में, वृक्षों से संकीर्ण स्थान में, नदियों के संयोगस्थान में, द्वीप में, अतिशय शान्त वृक्ष के कोटर में, पुराने बगीचे में, शमशान में, सिद्धकूट पर, कृत्रिम व अकृत्रिम जिनालय में, जहाँ पर किसी महाऋद्धि के धारक व अतिशय पराक्रमी योगी का अभीष्ट सिद्ध हुआ हो, जो स्थान मन की प्रसन्नता देने वाला, प्रशस्त, भय व कोलाहल से रहित, सब ही ऋतुओं में सुखदायक, रमणीय, उपद्रव से रहित हो, सूने घर, गांव, भूगर्भ, केला के स्तम्भों से निर्मित गृह में, नगर व उपवन की वेदिका के समीप में, लतागृह में, चैत्यवृक्ष के नीचे तथा वर्षा, घाम व शीत आदि वायु के संचार व मूसलाधार वृष्टि से रहित स्थान में निरन्तर जागता है सदा ही विघ्न बाधाओं से रहित ध्यान को करता है।।1303-7।।