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________________ 90] [जिनागम के अनमोल रत्न अप्येकं दर्शनं श्लाध्यं चरणज्ञानविच्युतम्। न पुनः संयमज्ञाने मिथ्यात्वविषदूषिते ।। अत्यल्मपि सूत्रज्ञैर्दृष्टिपूर्वं यमादिकम् । प्रणीतं भवसंभूत क्लेशप्राग्मार भेषजम् ।। मन्ये मुक्तः स पुण्यात्मा विशुद्धं यस्य दर्शनम्। यतस्तदेव मुक्त्यङ्गमग्रिम परिकीर्तितम् ।। प्राप्नुवन्ति शिवं शश्वच्चरण ज्ञानविच्युताः। अपि जीवा जगत्यस्मिन् न पुनदर्शनं बिना।। यदि चारित्र और ज्ञान से रहित एक ही वह सम्यग्दर्शन है तो वह अकेला भी प्रशंसनीय है। परन्तु उस सम्यग्दर्शन के बिना मिथ्यात्वरूप विष से दूषित चारित्र और ज्ञान दोनों भी प्रशंसनीय नहीं है। सम्यग्दर्शन-के-साथ यदि संयम आदि अतिशय अल्प प्रमाण में भी हों तो भी उन्हें आगम के ज्ञाता गणधर आदि ने संसार परिभ्रमण से उत्पन्न कष्ट के भारी बोझ को नष्ट करने वाली औषधि बताया है। जिसे निर्मल सम्यग्दर्शन प्राप्त हो चुका है, उस पवित्र आत्मा को मैं मुक्त हुआ ही मानता हूँ । कारण इसका यह है कि मुक्ति का प्रधान अंग उसे ही निर्दिष्ट किया गया है। जो जीव चारित्र और ज्ञान से भ्रष्ट हैं वे निरन्तर मुक्ति को प्राप्त करते हैं परन्तु जो प्राणी उस सम्यग्दर्शन से रहित हैं वे इस संसार में कभी भी मुक्ति को प्राप्त नहीं होते हैं। 444 से 447।। यज्जन्मकोटिभिः पापं जयत्यज्ञस्तपोवलात्। तद्विज्ञानी क्षणार्धेन दह त्यतुलविक मः।। . अज्ञानी जीव जिस पाप को तप के प्रभाव से करोड़ों जन्मों में जीतता है उसे विशिष्ट ज्ञानी जीव अनुपम पराक्रम से आधे क्षण में जला डालता है। 466।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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