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________________ जिनागम के अनमोल रत्न ] [91 दान में दी गई कुलाचलों से संयुक्त सात द्वीपवाली पृथ्वी एक प्राणी के घात से उत्पन्न हुए पाप को नष्ट नहीं करती। 1505 ।। धर्मनाश के उपस्थित होने पर, शास्त्रविहित अनुष्ठान का विनाश होने पर अथवा परमागम के अर्थ के नष्ट होने पर सत्पुरूषों को पूछने के बिना भी उसके स्वरूप को प्रकाशित करने वाला सम्भाषण करना ही चाहिये । 1545 ।। पुरजलावर्त प्रतिमं मन्ये तन्मुखोदरम् । यतो वाचः प्रवर्तन्ते कश्मलाः कार्यनिष्फलाः ।। जिस मुख के मध्य से मोह को उत्पन्न करने वाले निरर्थक वचन प्रवृत्त होते हैं उस मुख के मध्य को मैं नगर की नाली के समान मानता हूँ । 1548 ।। सब लोगों को आनन्दप्रद, यथार्थ, प्रसन्न और सुन्दर वर्णों से निष्पन्न हुए वाक्य के विद्यमान रहने पर भी निकृष्ट मनुष्य कठोर वचन क्यों बोलते हैं? ।।552 ।। यस्तपस्वी जटी मुण्डो नग्नो वा चीवरावृतः । सोऽप्यसत्यं यदि व्रते निन्द्यः स्यादन्त्यजादपि ।। जो तपस्वी हो, जटाओं को धारण करता हो, शिर के मुण्डन से संयुक्त हो, वस्त्र से रहित हो, अथवा वस्त्र से सहित हो, वह यदि असत्य वचन बोलता है तो उसे चाण्डाल से भी निन्दनीय समझना चाहिये | 1561 ।। स्त्री स्वतन्त्रता को प्राप्त होकर अकेली ही मनुष्य के जिस अनर्थ को करती है उसे क्रोध को प्राप्त हुए सिंह, व्याघ्र, सर्प, अग्नि और राजा भी नहीं कर सकते । 1655 ।। ब्रह्मा ने मनुष्यों को खण्डित करने के लिये शूल जैसी, छेदने के लिये तलवार जैसी, काटने के लिये आरी जैसी तथा पेलने के लिये कोल्हू जैसी स्त्रियों को रचा है । 1684।। व्याघ्र, सर्प अथवा पिशाचों के साथ एक स्थान पर रहना अच्छा है ।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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