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[जिनागम के अनमोल रत्न
कि तेरी इच्छा आत्म प्रयोजन को छोड़कर किन्नरपुर के समान सुहावने दिखने वाले इस संसार में स्थित रहने की है।
स्त्री आदि रूप विशाल फांसों में दृढ़ता के जकड़े हुए ये संसारी प्राणीरूप यात्री संसाररूप विस्तृत अन्धकूप में पड़ते हैं । 170 ।।
यस्य राज्याभिषेकश्रीः प्रत्यूषेऽत्र विलोक्यते । तस्मिन्नहनि तस्यैव चिताधूमश्च दृश्यते । 184 ।। इस संसार में प्रातःकाल के समय जिसके राज्याभिषेक की शोभा देखी जाती है उसी दिन में उसकी चिता का धुंआ भी देखा जाता है।
गलत्ये वायुरत्यर्थं हस्तन्यस्ताम्बुवत्क्षणे । नलिनीदल संक्रान्तं प्रालेयमिव यौवनम् ॥88॥
जिस प्रकार हाथ की अंजुली में रखा जल क्षणभर में नष्ट हो जाता है उसी प्रकार प्राणियों की आयु भी क्षण-क्षण में अतिशय क्षीण होती जाती है तथा जिस प्रकार कमलिनी के पत्र पर पड़ी हुई मोती जैसी सुन्दर ओस की बूंद शीघ्र ही बिखर जाती है उसी प्रकार प्राणियों का यौवन भी शीघ्र बिखर जाने वाला है ।
चिन्तामणिर्निधिर्दिव्यः
स्वर्धेनुः कल्पपादपाः । धर्मस्यैते श्रिया सार्धं मन्ये भृत्याश्चिरंतनाः । । 204 ।। चिन्तामणि, दिव्यनिधि, कामधेनु और कल्पवृक्ष, ये सब लक्ष्मी के साथ उस धर्म के चिरकालीन सेवक हैं - ऐसा मैं समझता हूँ ।
जो-जो कार्य अपने लिये अनिष्ट प्रतीत होता है उस उस कार्य को दूसरों के प्रति वचन, मन और क्रिया के द्वारा स्वप्न में भी नहीं करना चाहिये । यह धर्म का प्रथम चिन्ह हैं ।।221
जिस प्रकार हाथ से भ्रष्ट होकर महासमुद्र के भीतर गया हुआ अतिशय मूल्यवान रत्न पुनः सरलता से प्राप्त नहीं हो सकता, उसी प्रकार इस संसार