________________
-
[87
जिनागम के अनमोल रत्न]
(13) ज्ञानार्णव तच्छु तं तच्चा विज्ञानं तद्ध यानं तत्परं तपः।
अयमात्मा यदासाद्य स्वस्वरूपे लयं ब्रजेत्।।१।।
जिसको प्राप्त करके यह जीव आत्मस्वरूप में लीन होता है उसे ही यथार्थ श्रुत, उसे ही विज्ञान, उसे ही ध्यान और उसे ही उत्कृष्ट तप समझना चाहिए। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि श्रुत, विज्ञान, ध्यान और तप इन सबका प्रयोजन आत्मस्वरूप में लीन होना ही है।
दुरंतदुरिताक्रान्तं निःसारमतिवञ्चकम्। जन्म विज्ञाय कः स्वार्थे मुह्यत्यङ्गी सचेतनः।।10।।
जन्म स्वरूप यह संसार बहुत कष्ट से नष्ट होने वाला, पाप से व्याप्त, सार रहित और अतिशय धोखा देने वाला है। इसके स्वरूप को जानकर भला ऐसा कौन सचेतन प्राणी है जो आत्मप्रयोजन में मोह को प्राप्त होता है।
स्वसिद्धयर्थं प्रवृत्तानां सतामप्यत्र दुर्थियः। द्वेषवुद्धया प्रवृर्तन्ते केचिज्जगति जन्तवः।।32।।
संसार में कुछ ऐसे भी दुर्बुद्धिजन हैं जो आत्मसिद्धि के लिये प्रवृत्त हुए सत्पुरुषों के प्रति भी यहां द्वेषबुद्धि से प्रवृत्त होते हैं।
संगैः किं न विषाद्यते वपुरिदं किं छिद्यते नामयैसृत्युः किं न विजृम्भते प्रतिदिनं दुह्यन्ति किं नापदः।। श्वभ्राः किं न भयानकाः स्वपनवद्भोगान किं बञ्चका।
येन स्वार्थमपास्य किंनरपुरप्रख्ये भवे ते स्पृहा।।5।।
हे भव्य जीव! क्या परिग्रह तुझे खिन्न नहीं करते हैं, क्या यह तेरा शरीर रोगों के द्वारा छिन्न-भिन्न नहीं किया जाता है, क्या मृत्यु तुझसे ईर्ष्या नहीं करती है, क्या आपत्तियां तुझे प्रतिदिन नहीं ठगती हैं, क्या नरक तुझे भयभीत नहीं करते हैं, क्या विषय भोग तुझे स्वप्न के समान ठगने वाले नहीं है, जिससे