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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [83 जो दिक्खिदो वि इंदियकषायवसिगो हवे साधू॥ जो साधु दीक्षित होकर भी इन्द्रिय और कषाय के आधीन होता है वह अज्ञानी अपने गले में पत्थर बांधकर अगाध तालाब में प्रवेश करता है। 1323 ।। कुलीन और यश के अभिलाषी पुरूष का मरना श्रेष्ठ है किन्तु दीक्षित होकर इन्द्रिय और कषाय के वश में रहकर जीना श्रेष्ठ नहीं है। 1327।। घोडगलिंडसमाणस्स तस्स अब्भंतरमि कुधिदस्स। बाहिरकरणं किं से काहिदि वगणिहुद करणस्स।। जैसे घोड़े की लीद ऊपर से चिकनी और भीतर से खुरदरी होती है वैसे ही किसी का बाह्य आचरण तो समीचीन होता है परन्तु अभ्यन्तर परिणाम शुद्ध नहीं होते, उसे घोड़े की लीद के समान कहा है। 1341 ।। अपने से हीन व्यक्तियों को देखकर मूर्ख लोग 'मान' करते हैं किन्तु विद्वान अपने से बड़ों को देख कर 'मान' दूर करते हैं। 1370।। ___जो लोभ से ग्रस्त हैं उनके चित्त को तीनों लोक प्राप्त करके भी सन्तोष नहीं होता और जो शरीर की स्थिति में कारण किसी भी वस्तु को पाकर सन्तुष्ट रहता है, जिसे वस्तु में ममत्वभाव नहीं है वह दरिद्र होते हुए भी सुख प्राप्त करता है। अतः चित्त की शान्ति सन्तोष के आधीन है, द्रव्य के आधीन नहीं। महान् द्रव्य होते हुए भी जो असन्तुष्ट है उसके हृदय में महान् दुख रहता है। 1386।। इन्द्रिय कषायरूपी घोड़े दुर्दमनीय हैं इनको वश में करना बहुत कठिन है। वैराग्यरूपी लगाम से ही ये वश में होते हैं। किन्तु उस लगाम के ढीले होने पर वे पुरूष को दुखदायी पापरूपी विषम स्थान में गिरा देते हैं। 1390 ।। इन्द्रिय और कषायरूपी बाघ संयमरूपी मनुष्य को खाने के बड़े प्रेमी होते हैं। इन्हें वैराग्यरूपी लोहे के मजबूत पिंजरे से रोका जा सकता है। 1402 ।। अच्छी तरह सैकड़ों छल-कपट करने पर भी पुण्यहीन के हाथ में
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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