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[जिनागम के अनमोल रत्न
जिससे निकलना कठिन है ऐसे कालरूपी लोहे के पिंजरे के पेट में गये सिंह की तरह, जाल में फंसे हिरणों की तरह, अन्यायरूपी कीचड़ में फंसे बूढ़े हाथी की तरह, पाश से वृद्ध पक्षी की तरह, जेल में बन्द चोर की तरह, व्याघ्रों के मध्य बैठे दुर्बल हिरण की तरह, जिसके पास में जाने से संकट आया है ऐसे जाल में फंसे मगर - मच्छ की तरह, जिस गृहस्थाश्रम में रहने वाला मनुष्य कालरूपी अत्यंत गाढ़े अन्धकार के पटल से आच्छादित हो जाता है।
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रागरूपी महानाग उसे सताते हैं । चिन्तारूपी डाकिनी उसे खा जाती है। शोकरूपी भेड़िये उसके पीछे लगे रहते हैं। कोपरूप आग उसे जलाकर राख कर देती है। दुराशारूपी लताओं से वह ऐसा बंध जाता है कि हाथ-पैर भी नहीं हिला पाता । प्रिय का वियोगरूपी वज्रपात उसके टुकड़े कर डालता है । प्रार्थना करने पर न मिलने रूपी सैकड़ों वाणों का वह तरकस बन जाता है। मायारूपी बुढ़िया उसे जोर से चिपकाये रहती है । तिरस्कार रूपी कठोर कुठार उसे काटते रहते हैं । अपयशरूपी मल से वह लिप्त होता है। महामोहरूपी जंगली हाथी के द्वारा वह मारा जाता है । पापरूपी घातकों के द्वारा वह ज्ञान शून्य कर दिया जाता है । भयरूपी लोहे की सुइयों से कोचा जाता है । प्रतिदिन श्रम रूपी कौओं के द्वारा खाया जाता है। ईर्ष्यारूपी काजल से विरूप किया जाता है। परिग्रहरूपी मगरमच्छों के द्वारा पकड़ा जाता है । जिस गृहस्थाश्रम में रहकर असंयम की ओर जाता है। असूयारूपी पत्नी का प्यारा होता है । अर्थात् दूसरे के गुणों में भी दोष देखता है। अपने को मानरूपी दानव का स्वामी मानने लगता है । विशाल धवल चारित्ररूपी तीन छत्रों की छाया का सुख उसे नहीं मिलता। वह अपने को संसाररूपी जेल से नहीं छुड़ा पाता । कर्मों का जड़मूल से विनाश नहीं कर पाता । मृत्युरूपी विषवृक्ष को नहीं जला पाता। मोहरूपी मजबूत सांकल को नहीं तोड़ता । विचित्र योनियों में जाने को नहीं रोक पाता। दीक्षा धारण करके इस प्रकार के गृहवास सम्बन्धी दोषों से मुक्त होकर भी पुन: उन्हीं दोषों को स्वीकार करता है ।।1319 ।।
सो कंठोल्लगिदसिलो दहमत्थाहं अदीदि अण्णाणी ।