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जिनागम के अनमोल रत्न]
जैसे बाघ के भय से भागा हुआ हिरन अपने झुण्ड को जाल में फंसा देखकर झुण्ड के मोह से स्वयं भी जाल में फंस जाता है, वैसे ही कोई मुनि गृह त्यागने के बाद स्वयं ही उसमें फंस जाता है।।1313 ।।
जैसे पिंजरे से मुक्त हुआ पक्षी उद्यानों में स्वेच्छा पूर्वक विहार करते हुए स्वयं ही अपने आवास के प्रेमवश पिंजरे में चला जाता है।।1314।।
सयमेव वंतमसणं णिल्लज्जो णिग्घिणो सयं चेव। लोलो किविणो भंजदि सुणहो जध असणतण्हाए। एवं केई गिहिबास दोसमुक्का वि दिक्खिदा संता। इंदिय कषाय दोसेहि पुणो ते चेव गिण्हंति।
जैसे कोई निर्लज्ज घिनावना कुत्ता अपने ही बमन किये भोजन को भोजन की तृष्णावश लोलुपता से खाता है। 1318।।
वैसे ही गृहवास के दोषों से मुक्त कोई दीक्षा स्वीकार करके भी गृहवास के उन्हीं इन्द्रिय और कषायरूपी दोषों को स्वीकार करता है।
गृहवास को बुरा क्यों कहा? गृहस्थाश्रम-'यह मेरा है' इस भाव का अधिष्ठान है। निरन्तर माया और लोभ को उत्पन्न करने में दक्ष जीवन के उपायों में लगाने वाला है। कषायों की खान है। दूसरों को पीड़ा देने और अनुग्रह करने में तत्पर रहता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में उसका व्यापार सदा चलता रहता है। मनवचन-काया से सचित्त-अचित्त अनेक सूक्ष्म और स्थूल द्रव्यों के ग्रहण और बढ़ाने के लिये उसमें प्रयास करना होता है। उसमें रहकर मनुष्य असारता में सारता, अनित्य में नित्यता, अशरण में शरणता, अशुचि में शुचिता, दुख में सुखपना, अहित में हितपना, अनाश्रय में आश्रयपना, शत्रु में मित्रता मानता हुआ सब ओर दौड़ता है। भय और शंका से युक्त होते हुए भी आश्रय प्राप्त करता है।