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जिनागम के अनमोल रत्न]
[53 (8) समाधितन्त्र । यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा।
जानन्न दृश्यते रूपं ततः केन ब्रबीम्यहम्।।18।। मेरे द्वारा जो शरीरादि रूपी पदार्थ दिखाई देते हैं, वे अचेतन पदार्थ किसी को सर्वथा नहीं जानते और जो जानने वाला चैतन्यस्वरूप आत्मा वह (इन्द्रियों द्वारा) दिखाई नहीं देता, तो मैं किसके साथ बोलूं-वार्तालाप करूं।
यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये।
उन्मत्तचेष्टितं तन्ये यदहं निर्विकल्पकः।।1।। मैं अन्य के द्वारा कुछ सीखने योग्य हूँ तथा अन्य को-शिष्यादि को कुछ सिखाता हूँ-मेरी वह चेष्टा उन्मत्त-पागल. चेष्टा है, क्योंकि वास्तव में मैं निर्विकल्प-वचन विकल्पों के अग्राह्य हूं।
यदग्राह्यं न गृह्णाति, गृहीतं नापि मुंचति।
जानाति सर्वथा सर्वं, तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहं ।।20।। ___ जो शुद्ध आत्मस्वरूप अग्राह्य को-क्रोधादि स्वरूप को ग्रहण नहीं करता और ग्रहण किये हुए को अपने अनंत ज्ञानादि गुणों को छोड़ता नहीं है, तथा सम्पूर्ण पदार्थों को सर्व प्रकार से द्रव्य-गुण-पर्याय से जानता है, वह अपने अनुभव में आने योग्य चैतन्यद्रव्य मैं हूँ।
मामपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः।
मां प्रपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः।।26।। मुझे आत्मा को नहीं देखता हुआ यह अज्ञानी लोक मेरा शत्रु नहीं है और मित्र नहीं है, तथा मुझे-मेरे आत्मस्वरूप को-यथार्थरूप से देखता हुआ यह लोक-ज्ञानी जीव, वह भी मेरा शत्रु-मित्र नहीं है।
यः परात्मा स एवाऽहं, योऽहं स परमस्ततः। अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः।।1।।