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[जिनागम के अनमोल रत्न यो यत्र निवसन्नास्ते, स तत्र कुरुते रतिम्। यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति।। जो जामें बसता रहे, सो तामें रुचि पाय। जो जामें रम जात है, सो ता तज नहिं जाय।।
जो जहां निवास करने लग जाता है, वह वहां रमने लगता है, और जो जहां रमने लगता है वह फिर वहां से हटता नहीं है।।43 ।।
जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्यः इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः। यदन्यदुच्यते किञ्चित्, सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः।। जीव जुदा पुद्गल जुदा, यही तत्त्व का सार।
अन्य कछु व्याख्यान जो, याही का विस्तार ।। 'जीव जुदा है, पुद्गल जुदा है' बस इतना ही तत्त्व के कथन का सार है। इसके सिवाय जो कुछ भी कहा जाता, बस सब इसी का विस्तार है।।50 ।।
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वैराग्य जननी-बारह भावनाएँ भगवान तीर्थंकरदेव द्वारा जिनका चिन्तवन किया गया, ऐसी अध्रुव आदि बारह भावनाएँ वैराग्य की जननी है, | समस्त जीवों का हित करने वाली हैं, परमार्थ मार्ग को बतलाने वाली हैं, तत्त्व का निर्णय कराने वाली हैं, सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाली हैं, अशुभ ध्यान का नाश करने वाली तथा आत्मकल्याण के अर्थी जीव को सदैव चिन्तवन करने योग्य हैं।
- श्री भगवती आराधना