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[जिनागम के अनमोल रत्न ___ जो परमात्मा है वही मैं हूँ तथा जो मैं हूँ वही परमात्मा है; अतः मैं ही मेरे द्वारा उपासित होने योग्य हूँ, अन्य नहीं; ऐसी वस्तुस्थिति है।
आत्मविभ्रजं दुखमात्मज्ञानात्पशाम्यति। नायतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वापि परमं तपः।।41।।
आत्मभ्रान्ति से उत्पन्न दुख आत्मज्ञान से शान्त हो जाता है। जो भेदज्ञान द्वारा आत्मस्वरूप की प्राप्ति का प्रयत्न नहीं करते, वे उत्कृष्ट तप करने पर भी निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकते।
अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं ततः।
क्वरुष्यामिक्वतुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः।।6।। ये देहादि दृश्य पदार्थ चेतना रहित जड़ हैं और जो चैतन्यरूप आत्मा है वह इन्द्रियों द्वारा दिखाई नहीं देता, अतः मैं किस पर रोष करूं? किस पर तोष करूं? अतः मैं मध्यस्थ होता है-इस प्रकार अन्तरात्मा विचार करता है।
आत्मज्ञानात्परं कार्यं न बुद्धौ धारयेच्चिरम्। कुर्यादर्थवशात्किंचिद्वाक्कायाभ्यामतत्परः।।5।। ज्ञानी पुरूष आत्मज्ञान से भिन्न किसी भी कार्य को अपनी बुद्धि में अधिक समय तक धारण नहीं करता, यदि प्रयोजनवश वचन-काय से कुछ करता भी है तो वह अतत्पर-अनासक्त भाव से करता है।
तद्बु यात्तत्परान्पृच्छे त्तदिच्छे त्तत्परो भवेत्।
येनाऽविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं ब्रजेत्।।53॥ उसकी अर्थात् आत्मस्वरूप की वार्ता करना, उसी के संबंध में पूछना; उसकी ही इच्छा करना, उसकी प्राप्ति को अपना इष्ट बनाना, उसकी भावना में ही तत्पर सावधान रहना, जिससे अज्ञानमय बहिरात्मस्वरूप का त्याग होकर ज्ञानस्वरूप-परमात्मस्वरूप की प्राप्ति हो।