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... [जिनागम के अनमोल रत्न बुद्धवा धीमान् सहजपरमानन्दपीयूषपूरे,
निर्मज्जिन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे।।123।। आत्मध्यान के अतिरिक्त अन्य सब घोर संसार का मूल है, ध्यानध्येयादिक सुतप (विकल्परूप शुभ तप) कल्पनामात्र रम्य है;-ऐसा जानकर धीमान सहज परमानन्दरूपी पीयूष के पूर में डूबते हुए ऐसे एक सहज परमात्मा का आश्रय करते हैं।
कैवल्य दर्शन-ज्ञान-सुख कैवल्य शक्ति स्वभाव जो। मैं हूँ वही, यह चिन्तवन होता निरन्तर ज्ञानि को।।96।। निजभाव को छोड़े नहीं, किंचित् ग्रहे परभाव नहीं। देखे ब जाने मैं वही, ज्ञानी करे चिन्तन यही।197॥ मम ज्ञान मैं है आतमा, दर्शन चरित में आतमा। है और प्रत्याख्यान, संवर, योग में भी आतमा।100॥ मरता अकेला जीव एवं जन्म एकाकी करे। पाताअकेला ही मरण अरु मुक्ति एकाकी करे।।101॥ समता मुझे सब जीव प्रति वैर न किसी के प्रति रहा। मैं छोड़ आशा सर्वतः धारण समाधि कर रहा।104।।
एक स्त्वमाविशसि जन्मनि संक्षये च, भोक्तुं स्वयं स्वकृतकर्म फलानुबन्धम्। अन्यो न जातु सुखदुखविधौ सहायः,
स्वाजीवनाय मिलितं बिटपेटकं ते ।। - स्वयं किये हुए कर्म के फलानुबन्ध को स्वयं भोगने के लिये तू अकेला जन्म में तथा मृत्यु में प्रवेश करता है, अन्य कोई (स्त्री-पुत्र-मित्रादिक) सुखदुख के प्रकारों में बिल्कुल सहायभूत नहीं होता, अपनी आजीविका के लिये यह ठगों की टोली तुझे मिली है।।भा.101 ।।