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जिनागम के अनमोल रत्न ]
एको मे सासदो अप्पा णाणदंसण लक्खणो । सेसा में बाहिरा भावा सब्बे संजोग लक्खणा ।। दृग्ज्ञान- लक्षित और शाश्वत मात्र आत्मा मम अरे । अरु शेष सब संयोग लक्षित भाव मुझसे हैं परे । । ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला शाश्वत एक आत्मा मेरा है; शेष सब संयोग लक्षण वाले भाव मुझसे बाह्य हैं ।।102 ।।
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जो शाश्वत महा आनन्दानन्द जगत में प्रसिद्ध है, वह निर्मल गुण वाले सिद्धात्मा में अतिशयरूप से तथा नियतरूप से रहता है । (तो फिर ) अरे रे ! यह विद्वान भी काम के तीक्ष्ण शस्त्रों से घायल होते हुए क्लेशपीड़ित होकर उसकी (काम की) इच्छा क्यों करते हैं? वे जड़बुद्धि हैं। कलश 146 ।। अनादिमम संसाररोगस्या गदमुत्तमम् । शुभाशुभ विनिर्मुक्तशुद्धचैतन्य भावना ।।
शुभ और अशुभ से रहित शुद्धचैतन्य की भावना मेरे अनादि संसार रोग की उत्तम औषधि है । कलश 167 ।।
त्रिलोकरूपी मकान में रहे हुए (महा) तिमिरपुंज जैसा मुनियों का यह (कोई) नवीन तीव्र मोहनीय है कि (पहले) वे तीव्र वैराग्यभाव से घांस के घर को भी छोड़कर (फिर) "हमारा वह अनुपम घर!" ऐसा स्मरण करते हैं। कलश 240 ।।
अन्यवशः संसारी मुनिवेषधरोपि दुःखभानित्यम् । स्वबशो जीवन्मुक्तः किंचिन्यूनो जिनेश्वरादेवः ॥ अतएव भाति नित्यं स्ववशो जिननाथमार्गमुनिवर्गे । अन्यवशो भात्येवं भृत्यप्रकरेषु राजबल्लभवत् ॥
जो जीव अन्यवश है वह भले मुनिवेषधारी हो तथापि संसारी है, नित्य दुख का भोगने वाला है; जो जीव स्ववश है वह जीवन्मुक्त है, जिनेश्वर से किंचित न्यून है । 1243 ।।