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जिनागम के अनमोल रत्न ]
मैं मार्गणा के स्थान नहीं, गुणस्थान जीवस्थान नहीं । कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता भी नहीं । 78 ॥ बालक नहीं मैं, वृद्ध नहीं, नहिं युवक तिन कारण नहीं । कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता भी नहीं । 179॥ मैं राग नहिं, मैं द्वेष नहीं, नहिं मोह तिन कारण नहीं । कर्तान, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता भी नहीं । 180 ॥ मैं क्रोध नहिं, मैं मान नहिं, माया नहीं, मैं लोभ नहिं । कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमोदक मैं नहीं ।।81॥
ध्यानावलीमपि च शुद्धनयो न वक्ति, व्यक्तं सदाशिवमये परमात्मतत्त्वे । सास्तीत्युवाच सततं व्यवहारमार्गस्तत्त्वं जिनेन्द्र तदहो महदिन्द्रजालम् ।।119 । प्रगटरूप से सदाशिवमय ऐसे परमात्मतत्त्व में ध्यानाबली होना भी शुद्धनय नहीं कहता । " वह है " ऐसा (मात्र) व्यवहार मार्ग मैं सतत् कहा है । हे जिनेन्द्र! ऐसा वह तत्त्व, अहो ! महा इन्द्रजाल है ।
अथ भवजलराशौ मग्नजीवेन पूर्वं किमपि वचनमात्रं निर्वृतेः कारणंयत् । तदपि भवभवेषु श्रूयते बाह्यते वा, न च न च वत कष्टं सर्वदा ज्ञानमेकम् ।।121।।
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जो मोक्ष का कुछ कथनमात्र कारण है उसे भी ( अर्थात् व्यवहाररत्नत्रय को भी) भवसागर में डूबे हुए जीव ने पहले भव-भव में सुना है और आचरा है; परन्तु अरे रे ! खेद है कि जो सर्वदा एक ज्ञान है (ऐसे परमात्मतत्त्व को) जीव ने सुना - आचरा नहीं है, नहीं है ।
आत्मध्यानादपरमखिलं घोरसंसारमूलं, ध्यानध्येयप्रमुखसुतपः कल्पनामात्र रम्यम्।