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जिनागम के अनमोल रत्न ]
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अर्थ :- जो परमात्मा ज्ञानस्वरूप है, वह मैं ही हूँ, जो कि अविनाशी देवस्वरूप हूँ, जो मैं हूँ वही उत्कृष्ट परमात्मा है, इस प्रकार नि:संदेह
भावना कर ।
मोक्खु म चिंतहि जोइया मोक्खु ण चिंति होई । जेण णिबद्धउ जीवङउ मोक्खु करेसइ सोई ।।188৷
अर्थ :- हे योगी ! अन्य चिन्ता की तो क्या बात ? मोक्ष की भी चिन्ता मत कर, क्योंकि मोक्ष चिन्ता करने से नहीं होता, चिन्ता के त्याग से होता है । रागादि चिन्ताजाल से रहित केवलज्ञानादि अनंत गुणों की प्रगटता सहित जो मोक्ष है वह चिन्ता के त्याग से होता है। जिन कर्मों से यह जीव बंधा है, वे कर्म ही मोक्ष करेंगे।
अन्तिम भावना
इस परमात्मप्रकाश की टीका का व्याख्यान जानकर भव्य जीवों को ऐसा विचार करना चाहिये कि मैं सहज शुद्ध ज्ञानानन्द स्वभाव निर्विकल्प हूँ, उदासीन हूँ, निजानन्द निरंजन शुद्धात्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप निश्चय रत्नत्रयमयी निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतराग सहजानंदरूप आनन्दानुभूतिमात्र जो स्वसंवेदनज्ञान उससे गम्य हूँ, अन्य उपायों से गम्य नहीं हूँ । निर्विकल्प निजानन्द ज्ञानकर ही मेरी प्राप्ति है, पूर्ण हूँ। रागद्वेष मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, पाँचों इन्द्रियों के विषय व्यापार, मनवचन-काय, द्रव्यकर्म-भावकर्म - नोकर्म, ख्याति - लाभ - पूजा, देखे - सुने - अनुभवे भोगों की वांछा रूप निदानबंध, माया, मिथ्या ये तीन शल्यों इत्यादि विभाव परिणामों से रहित सब प्रपंचों से रहित हूँ। तीन लोक, तीन काल में मनवचन-कायकर, कृत-कारित अनुमोदना कर, शुद्ध निश्चय से मैं आत्माराम ऐसा हूँ तथा सभी आत्मा ऐसे हैं - ऐसी सदैव भावना करना चाहिये ।