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[जिनागम के अनमोल रत्न (4) यतिभावनाष्टकम् तत्त्वज्ञान के प्राप्त हो जाने पर धूलि से मलिन, वस्त्र से रहित, पद्मासन से स्थित, शान्त वचन रहित तथा आँखों को मींचे हुए; ऐसी अवस्था को प्राप्त हुए मुझको यदि वनभूमि में भ्रम को प्राप्त हुआ, मृगों का समूह आश्चर्यचकित होकर पत्थर में उकेरी हुई मूर्ति समझने लग जावे तो मुझ जैसा मनुष्य पुण्यशाली होगा।।3।।
जो साधु ग्रीष्म ऋतु में पर्वत के शिखर के ऊपर स्थित शिला के ऊपर, वर्षा ऋतु में वृक्ष के मूल में तथा शीत ऋतु के प्राप्त होने पर चौरास्ते में स्थान प्राप्त करके ध्यान में स्थित होते हैं; जो आगमोक्त अनशनादि तप का आचरण करते हैं, और जिन्होंने ध्यान के द्वारा अपनी आत्मा को अतिशय शान्त कर लिया है, उनके मार्ग में प्रवृत्त होते हुए मेरा काल अत्यन्त शान्ति के साथ कब बीतेगा?।।6।।
शिर के ऊपर वज्र के गिरने पर भी अथवा तीनों लोकों के अग्नि से प्रज्वलित हो जाने पर भी, अथवा प्राणों के नाश को प्राप्त होते हुए भी जिनके चित्त में थोड़ा सा भी विकारभाव उत्पन्न नहीं होता है; ऐसे आश्चर्यजनक
आत्मतेज को धारण करने वाले किन्हीं बिरले ही श्रेष्ठ मुनियों के वह उत्कृष्ट निश्चल समाधि होती है जिसमें भेदज्ञान विशेष के द्वारा मन का व्यापार रूक जाता है।।7।।
= मैं आकिञ्चन हूँ हे जीव! मैं आकिञ्चन हूँ अर्थात मेरा कुछ भी नहीं, ऐसी सम्यक भावना तू निरन्तर कर कारण कि इसी भावना के सतत् चितवन से तू | त्रैलोक्य का स्वामी होगा। यह बात मात्र योगीश्वर ही जानते हैं। यह | | योगीश्वरों को गम्य ऐसा परमात्मतत्त्व का रहस्य मैंने तुझे संक्षेप में कहा।
-आचार्य गुणभद्रस्वामी : आत्मानुशासन, श्लोक-1101