________________
22]
[जिनागम के अनमोल रत्न अर्थ :- जिसने मनुष्य शरीररूपी-चर्ममयी वृक्ष को पाकर उससे धर्म नहीं किया, तप नहीं किया, उसका शरीर बुढ़ापारूपी दीमक के कीड़े कर खाया जायेगा, फिर उसको मरणकर नरक में पड़ना होगा।
ए पंचिंदिय - करहडा जिय मोक्कला म चारि। चरिवि असेसु बि बिषय-बणु पुणु पाडहिं संसारि।।166।।
अर्थ :- ये पांच इन्द्रियरूपी ऊँट हैं, उन्हें अपनी इच्छा से मत चरने दे, क्योंकि सम्पूर्ण विषय-वन को चरके फिर ये संसार में ही पटक देंगे।
घर वासउ मा जाणि जिय दुक्किय-वाउस एहु। पासु कयंते मंडियउ अविचलु णिस्संदेहु।।144।।
अर्थ :- हे जीव! तू इसको घर बास मत जान यह पाप का निवास स्थान है, यमराज ने यह अज्ञानी जीवों को बांधने के लिये अनेक फांसों से मंडित बहुत मजबूत बंदीखाना बनाया है, इसमें सन्देह नहीं है।
उब्बलि चोप्पडि चिट्ट करि देहि सु मिट्ठाहार।
देहहँ सयल णिरत्थ गय जिमुदुज्जणि उवयार।।148॥ . अर्थ :- इस देह का उबटन करो, तैलादिक से मर्दन करो, श्रृंगार आदि से सजाओ, अच्छे मिष्ठाहार दो, लेकिन ये सब व्यर्थ हैं, जैसे दुर्जनों का उपकार करना वृथा है।
दुक्खइ पावइँ असुचियइँ तिहुयणि सयलइँ लेवि।
एयहिं देहु बिणिम्मियउबिहिणा बइरू मुणेवि।150।
अर्थ :- तीन लोक में जितने दुख हैं, पाप हैं, असुचि वस्तुएं हैं, उन सबको लेकर इन सबसे विधाता ने बैर मानकर यह शरीर बनाया है।
जो परमप्पा णाणमउ सो हउँ देउ अणंतु। जो हउँ सो परमप्पु परु एहउ भावि णिभंतु।।175।।