________________
जिनागम के अनमोल रत्न ]
[21
भ्रमता हुआ उस भिक्षा में स्वादयुक्त आहार की इच्छा करता है, तो तुझे शर्म क्यों नहीं आती? वह बड़ा आश्चर्य है । 1111+2 ।।
जे सरसिं संतु मण बिरसि कसाउ बहंति ।
ते मुणि भोयण - धार गणि णवि परमत्थु मुणति ।
अर्थ :- जो योगी स्वादिष्ट आहार से हर्षित होते हैं, और नीरस आहार में क्रोधादि कषाय करते हैं, वे मुनि भोजन के विषय में गृद्धपक्षी के समान हैं, ऐसा तू समझ । वे परमतत्व को नहीं समझते हैं । 1111+4।।
-
ते चि धण्णा ते चिय सप्पुरिसा ते जियंतु जिय लोए । बोह - दहम्म पडिया तरंति जे चेब लीलाए ।।117 ।।
अर्थ :- वे ही धन्य हैं, वे ही सत्पुरुष है और वे ही जीव इस लोक में जीते हैं, जो यौवन अवस्थारूपी बड़े भारी तालाब में पड़े हुए भी विषयरस में नहीं डूबते, लीला मात्र में ही तिर जाते हैं, वे ही प्रशंसा योग्य हैं।
जिय अणु - मित्तु विदुक्खड़ा सहण ण सक्कहि जोइ । चउ गइ-दुक्खहँ कारणइँ कम्मइँ कुणहि किं तोइ ।।120 ।। अर्थ :- हे जीव ! तू परमाणु मात्र भी दुख सहने को समर्थ नहीं है, देख ! तो फिर चार गतियों के दुख के कारण जो कर्म हैं, उनको क्यों करता है । देउ देउ वि सत्थु गुरू तित्थु वि बेउ वि कब्बु । बच्छु जु दीसइ कुसुमियउ इंधणु होसइ सब्बु ।।130 ।।
अर्थ :- जिनालय, जिनेन्द्रदेव, जैनशास्त्र, दीक्षा देने वाले गुरु, सम्मेदशिखर आदि तीर्थ, द्वादशांगरूप सिद्धान्त, गद्य-पद्य रूप काव्य इत्यादि जो अच्छी या बुरी वस्तुएँ देखने में आती है, वे सब कालरूपी अग्नि का ईधन हो जायेगी।
धम्मु ण संचिउ उ ण किउ रूक्खे चम्ममयेणं । खज्जिवि जर उद्देहियए णरज्ञ पडिब्बउ तेण ।।133 ।।