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[जिनागम के अनमोल रत्न
(ज्ञानी जीव विषयों में निरंकुश नहीं रहते )
ग्यानकला जिनके घट जागी, ते जगमांहि सहज वैरागी । ग्यानी मगन विषैसुखमांही, यह विपरीति संभवै नांही । । ४१ ।।
8. बंध द्वार : कर्मबंधका कारण अशुद्ध उपयोग है कर्मजाल - वर्गनासौं जगमैं न बंधै जीव,
बंधै न कदापि मन-वच - काय - जोगसौं । चेतन अचेतनकी हिंसासौं न बंधै जीव,
बंधै न अलख पंच - विषै- विष रोगसौं ॥ कर्मसौं अबंध सिद्ध जोगसौं अबंध जिन,
.....हिंसासौं अबंध साधु ग्याता विषै- भोगसौं । इत्यादिक वस्तुके मिलापसौं न बंधै जीव,
बंधै एक रागादि असुद्ध उपयोगसौं || 4 || (चार पुरुषार्थों पर ज्ञानी और अज्ञानी का विचार) कुलका आचार ताहि मूरख धरम कहै,
पंडित धरम कहै वस्तु के सुभाउकौं । खेहकौ खजानौं ताहि अग्यानी अरथ कहै,
ग्यानी कहै अरथ दरब-दरसाउकौं ।। दंपतिको भोग ताहि दुरबुद्धी काम कहै,
सुधी काम कहै अभिलाष चित चाउकौं । इंद्रलोक थानकौं अजान लोग कहैं मोख,
सुधी मोख कहै एक बंध के अभाउकौं ।।14।।
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