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________________ [219 जिनागम के अनमोल रत्न] (आत्म-अनुभव ग्रहण करने की शिक्षा) * जो पद भौपद भय हरै , सौ पद सेऊ अनूप । जिहि पद परसत और पद , लगै आपदारूप ।।17।। (संसार सर्वथा असत्य है) जब जीव सौवै तब समुझै सुपन सत्य, वहि झूठ लागै तब जागै नींद खेइकै । जागै कहै यह मेरौ तन मेरी सौंज, ___ ताहू झूठ मानत मरन-थिति जोइकै ॥ जानै निज मरम मरन तब सूझै झूठ, बूझै जब और अवतार रूप होइकै । वाहू अवतारकी दसामैं फिरि यहै पेच, याही भांति झूठौ जग देख्यौ हमटोइकै ॥81।। . (व्यवहार-लीनता का परिणाम) लीन भयौ विवहारमैं , उकति न उपजै कोइ । दीन भयौ प्रभुपद जौ, मुकति कहासौं होइ ? ।। 22।। पुनः (दोहा) प्रभु सुमरौ पूजौ पढ़ौ , करौ विविध विवहार । मोख सरूपी आतमा , ग्यानगम्य निरधार ।। 23 ।। (ज्ञानी जीव सदा अबंध है) * ग्यानी ग्यानमगन रहै रागादिक मल खोइ । चित उदास करनी करै , करम बंध नहिं होइ ।। 36॥
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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