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जिनागम के अनमोल रत्न]
(आत्म-अनुभव ग्रहण करने की शिक्षा) * जो पद भौपद भय हरै , सौ पद सेऊ अनूप । जिहि पद परसत और पद , लगै आपदारूप ।।17।।
(संसार सर्वथा असत्य है) जब जीव सौवै तब समुझै सुपन सत्य,
वहि झूठ लागै तब जागै नींद खेइकै । जागै कहै यह मेरौ तन मेरी सौंज,
___ ताहू झूठ मानत मरन-थिति जोइकै ॥ जानै निज मरम मरन तब सूझै झूठ,
बूझै जब और अवतार रूप होइकै । वाहू अवतारकी दसामैं फिरि यहै पेच,
याही भांति झूठौ जग देख्यौ हमटोइकै ॥81।।
. (व्यवहार-लीनता का परिणाम) लीन भयौ विवहारमैं , उकति न उपजै कोइ । दीन भयौ प्रभुपद जौ, मुकति कहासौं होइ ? ।। 22।।
पुनः (दोहा) प्रभु सुमरौ पूजौ पढ़ौ , करौ विविध विवहार । मोख सरूपी आतमा , ग्यानगम्य निरधार ।। 23 ।।
(ज्ञानी जीव सदा अबंध है) * ग्यानी ग्यानमगन रहै रागादिक मल खोइ । चित उदास करनी करै , करम बंध नहिं होइ ।। 36॥