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जिनागम के अनमोल रत्न]
[203 आगम पुब्बा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजभो तस्स। णत्थीदि भणदि सुत्तं असंजदो होदि किध समणो।।236।। दृष्टी न आगमपूर्वक, जिसकी यहाँ, उसके नहीं । संयम कहें जिनसूत्र, हो तब असंयत कैसे मुनी?।। जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भव सयसहस्स कोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण।।238।। जो कर्म अज्ञानी खपाता, लाख कोटी भवों में । ज्ञानी त्रिधा हो गुप्त वे, क्षय करें मात्र उश्वास में ।। परमाणु मात्र ममत्व भी , देहादि में जिसके रहे । हो सर्व आगमधारि भी वह , पर न मुक्ति को लहे ।।239।। समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलो कंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो।।241।। है शत्रु - बंधु वर्ग - सम , सुख - दुःख निंदा - प्रशंसा । समलोष्ट - कंचन श्रमण, के जीवन - मरण सम है अहा ।। हैं समय में शुद्धोपयोगी , श्रमण शुभ उपयुक्त भी । शुद्धोपयोगी निरास्त्रव हैं , शेष उनमें सास्त्रवी ।।245।। यदि वैयावृति अर्थ उद्यत , कायखेद करे श्रमण । वह श्रावकों का धर्म है, आगारिहै वह, वह ना श्रमण।।250। हो सूत्र संयम तप सहित, पर यदि करे श्रद्धान ना । जिन कथित आत्मप्रधान, अर्थों का तोमाना श्रमणना।।264।। 'मैं श्रमण हूँ' ये मान, फिर भी हीन हैं जो गुणों में । चाहें गुणाधिक से विनय , वे नन्त संसारी बनें ।।266।। श्रामण्य में हों अधिक गुण, पर कम गुणी की क्रिया में । वर्ते तो मिथ्या सहित वे, चारित्र से भी भ्रष्ट हैं ।।267।।