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[जिनागम के अनमोल रत्न प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादिजनक के पास जा रहा है।
अहो! इस पुरूष के शरीर की रमणी के आत्मा! तू इस पुरूष के आत्मा को रमण नहीं कराता, ऐसा तू निश्चय से जान । इसलिये तू इस आत्मा को छोड़। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज अपनी स्वानुभूति रूपी अनादि-रमणी के पास जा रहा है। अहो! इस पुरूष के शरीर के पुत्र आत्मा। तू इस पुरूष के आत्मा का जन्य नहीं है, ऐसा तू निश्चय से जान। तू इस आत्मा को छोड़। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादि जन्य के पास जा रहा है। इस प्रकार बड़ों से, स्त्री से और पुत्र से अपने को छुड़ाता है।
मैं नहीं पर का पर न मेरा, यहाँ कुछ मेरा न पर। हो निश्चयी ऐसा, जितेन्द्रिय, यथाजात स्वरूपधर ।।204।। वह जीव जीवे या मरे, हिंसा अयत्नाचार के। ना बन्ध हिंसा मात्र से, निश्चित प्रयत्नाचार के ।।217।। है यथाजात स्वरूप लिंग, जिनमार्ग में उपकरण है। गुरु वचन, विनयव सूत्र अध्ययन, भी कहेउपकरण हैं ।।225।। ऐकाग्रयगत हैं श्रमण , वह अर्थों में निश्चयवान के । . निश्चित्ति आगम से अतः आगम में चेष्टा श्रेष्ठ है ।।232।। जो श्रमण आगमहीन वे, ही स्व पर को न जानते । तो कर्मक्षय कैसे करें, वे अर्थ को न जानते ? ।।233।। मुनिराज आगमचक्षु हैं, सब प्राणि इन्द्रियचक्षु हैं। वा देव अवधिचक्षु हैं, वा सिद्ध सर्वतः चक्षु हैं।।234।।