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[जिनागम के अनमोल रत्न
जो अज्ञान अन्धकार से आच्छादित होते हुए आत्मा को कर्ता मानते हैं, वे भले ही मोक्ष के इच्छुक हों तथापि सामान्य जनों की भांति उनकी भी मुक्ति नहीं होती ।
नास्ति सर्वोऽपि संबंधः परद्रव्यात्मतत्वयोः । कर्तृकर्मत्वसंबंधाभावे तत्कर्तृता कुतः ।। 200 ।।
परद्रव्य और आत्मतत्त्व का कोई भी सम्बन्ध नहीं है; इस प्रकार कर्तृत्व-कर्मत्व के सम्बन्ध का अभाव होने से आत्मा के परद्रव्य का कर्तृत्व कहां से हो सकता है?
इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम् । विज्ञानधनमानंदमयमध्यक्षतां नयत् ॥245।। आनन्दमय विज्ञानधन को प्रत्यक्ष करता हुआ यह एक अक्षयचक्षु पूर्णता को प्राप्त होता है ।
भावार्थ :- यह समयप्राभृत जगत को अक्षय अद्वितीय नेत्र समान है, क्योंकि जैसे नेत्र घटपटादि को प्रत्यक्ष दिखलाता है, उसी प्रकार समयप्राभृत आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रत्यक्ष अनुभव गोचर दिखलाता है ।
अलमलमतिज्ल्पै दर्विकल्पै रनल्यै - रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः । स्वरस विसरपूर्ण ज्ञानविस्फूर्तिमात्रान्नखलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति ।।244 ।।
बहुत कथन से और बहुत दुर्विकल्पों से बस होओ, बस होओ; यहाँ मात्र इतना ही कहना है कि इस एकमात्र परमार्थ का ही निरन्तर अनुभव करो, क्योंकि निजरस के प्रसार से पूर्ण जो ज्ञान उसके स्फुरायमान होने मात्र जो समयसार (परमात्मा) उससे उच्च वास्तव में दूसरा कुछ भी नहीं है।
योऽयं भावो ज्ञानमात्रोऽहमस्मि, ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानमात्रः स नैव । ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानकल्लोलबल्गन्, ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तु मात्रः । । 271 ।।