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जिनागम के अनमोल रत्न]
- [189 सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःख सौख्यम्। अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य,
कुर्यात्पुमान्मरणजीवित दुःख सौख्यम्।।168।। इस जगत में जीवों के मरण, जीवित, दुख, सुख-सब सदैव नियम से अपने कर्मोदय से होता है, दूसरा पुरुष दूसरे के मरण, जीवन, दुख, सुख को करता है ऐसा जो मानता है वह तो अज्ञान है। अज्ञानमेतदधिगम्य
परात्परस्य, पश्यंति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम् । कर्माण्यहं कृतिरसेन चिकीर्षवस्ते, मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवंति।।169।। इस अज्ञान को प्राप्त करके जो पुरूष पर से पर के मरण, जीवन, दुख, सुख को देखते हैं अर्थात् मानते हैं, वे पुरूष जो कि इस प्रकार अहंकार रस से कर्मों को करने के इच्छुक हैं-वे नियम से मिथ्यादृष्टि हैं, अपने आत्मा का घात करने वाले हैं।
यत्र प्रतिक मणमेव विषं प्रणीतं, तत्राप्रतिक्र मणमेव सुधा कुतः स्यात् । तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः,
किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रसादः।।189।। (हे भाई!), जहां प्रतिक्रमण को ही विष कहा है, वहां अप्रतिक्रमण अमृत कहां से हो सकता है? तब फिर मनुष्य नीचे ही नीचे गिरता हुआ प्रमादी क्यों होता है? निष्प्रमाद होता हुआ ऊपर ही ऊपर क्यों नहीं चढ़ता?
ये तु कर्तारमात्मानं पश्यति तमसा ततः। सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम्।199॥