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[जिनागम के अनमोल रत्न
वह एक ही पद आस्वादन के योग्य है जो कि विपत्तियों का अपद और जिसके आगे अन्य पद अपद ही भासित होते हैं ।
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क्लिश्यतां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः, क्लिश्यतां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नांश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं, ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमंते न हि ।। 142 ।।
कोई जीव तो दुष्करतर और मोक्ष से पराङ्मुख कर्मों के द्वारा स्वमेव क्लेशपाते हैं तो पाओ और अन्य कोई जीव महाव्रत और तप के भार से बहुत समय तक भग्न होते हुए क्लेश प्राप्त करें तो करो; (किन्तु ) जो साक्षात् मोक्षस्वरूप है, निरामय पद है और स्वयं संवेद्यमान है ऐसे इस ज्ञान को ज्ञानगुण के बिना किसी भी प्रकार से वे प्राप्त नहीं कर सकते ।
अचिन्त्यशक्तिः स्वयमेव देवश्चिन्मात्र चिंतामणिरेष यस्मात् । सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण । ।144 ॥
यह (ज्ञानी) स्वयं ही अचिन्त्य शक्ति वाला देव है, और चिन्मात्र चिन्तामणि है, इसलिये जिसके सर्व अर्थ (प्रयोजन) सिद्ध हैं - ऐसा स्वरूप होने से ज्ञानी दूसरे के परिग्रह से क्या करेगा ?
सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्त्तुं क्षमंते परं, यद्वजेऽपि पतत्यमपि भयचलत्त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि । सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं, जानंतः स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवंते न हि ।।154 ।। जिसके भय से चलायमान होते हुए तीनों लोक अपने मार्ग को छोड़ देते हैं ऐसा वज्रपात होने पर भी, ये सम्यग्दृष्टि जीव, स्वभावत: निर्भय होने से, समस्त शंका को छोड़कर स्वयं अपने को जिसका ज्ञानरूपी शरीर अवध्य है ऐसा जानते हुए ज्ञान से च्युत नहीं होते। ऐसा परम साहस करने के लिये मात्र सम्यग्दृष्टि ही समर्थ है।