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जिनागम के अनमोल रत्न]
तज्ज्ञानस्यैव सामर्थ्य विरागस्यैव वा किल। . यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुजानोऽपि न बध्यते।।134।।
वास्तव में वह सामर्थ्य ज्ञान की ही है अथवा विराग की है कि कोई (सम्यग्दृष्टि जीव) कर्मों को भोगता हुआ भी कर्मों से नहीं बंधता।
सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बंधो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु । आलंबंता समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापाः,
आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः।। "यह मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे कभी बन्ध नहीं होता"-ऐसा मानकर जिनका मुख गर्व से ऊँचा और पुलकित हो रहा है ऐसे रागी जीव भले ही महाव्रतादि का आचरण करें तथा समितियों की उत्कृष्टता का आलंबन करें तथापि वे पापी (मिथ्यादृष्टि) ही हैं, क्योंकि वे आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित होने से सम्यक्त्व से रहित है।
आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः, सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्वि बुध्यध्वमंधाः। एतै तेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः,
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति।।138।। हे अन्ध प्राणियो! अनादि संसार से लेकर पर्याय, पर्याय में यह रागी जीव सदा मत्त वर्तते हुए जिस पद में सो रहे हैं वह पद-स्थान अपद है-अपद है, ऐसा तुम समझो। इस ओर आओ-इस ओर आओ, (यहाँ निवास करो) तुम्हारा पद यह है-यह है, जहाँ शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु निजरस की अतिशयता के कारण स्थायीभावत्व को प्राप्त है अर्थात् स्थिर है अविनाशी है।
एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं पदम्। • अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः।।139 ।।