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जिनागम के अनमोल रत्न ]
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जो यह ज्ञानमात्र भाव में हूँ वह ज्ञेयों का ज्ञानमात्र ही नहीं जानना चाहिये; (परन्तु) ज्ञेयों के आकार से होने वाले ज्ञान की कल्लोलों के रूप में परिणमित होता हुआ वह ज्ञान - ज्ञेय - ज्ञातामय वस्तुमात्र जानना चाहिये।
भावार्थ-ज्ञानमात्र भाव ज्ञातृक्रियारूप होने ज्ञानस्वरूप है और वह स्वयं ही निम्न प्रकार से ज्ञेयरूप है । बाह्य ज्ञेय ज्ञान से भिन्न है, वे ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होते; ज्ञेयों के आकार की झलक ज्ञान में पड़ने पर ज्ञान ज्ञेयाकार रूप दिखाई देता है परन्तु वे ज्ञान की ही तरंगे हैं । वे ज्ञान तरंगे ही ज्ञान के द्वारा ज्ञात होती है । इस प्रकार स्वयं ही स्वतः जानने योग्य होने से ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञेयरूप है और स्वयं ही अपना जानने वाला होने से ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञाता है। इस प्रकार ज्ञानमात्र भाव ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता - इन तीनों भावों से युक्त सामान्य विशेष स्वरूप वस्तु है।' ऐसा ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ' इस प्रकार अनुभव करने वाला पुरूष अनुभव करता है ।
कषायक लिरेकतः स्खलति शांतिरस्त्येक़तो, भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः । जगत्त्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकास्त्येकतः, स्वभावमहिमात्मनो विजयते ऽद्भुतादभ्दुतः ।।274।।
एक ओर से देखने पर कषायों का क्लेश दिखाई देता है और एक ओर से देखने पर शान्ति है, एक ओर से देखने पर भव की पीड़ा दिखाई देती है और एक ओर से देखने पर मुक्ति भी स्पर्श करती है, एक ओर से देखने पर तीनों लोक स्फुरायमान होते हैं और एक ओर से देखने पर केवल एक चैतन्य ही शोभित होता है। ऐसी आत्मा की अद्भुत से भी अद्भुत स्वभाव महिमा जयवन्त वर्तती है।
अध्यात्म शास्त्र रूपी अमृत समुद्र में से मैंने जो संयम रूपी रत्नमाला बाहर निकाली है वह (रत्नमाला) मुक्तिवधू के बल्लभ ऐसे तत्त्वज्ञानियों के सुकण्ठ का आभूषण बनी है। श्री पद्मप्रभमलधारिदेव : नियमसार टीका कलश-180