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[जिनागम के अनमोल रत्न अरहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाण भक्ति संपण्णो। बंधदि पुण्णं बहुसो ण हु सो कम्मक्खयं कुणदि।। जिन-सिद्ध-प्रवचन-चैत्य-मुनिगण ज्ञाननी भक्ति करे। ते पुण्यबंध लहे घणो, पण कर्मणो क्षयनव करे।।
अहँत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन, मुनिगण और ज्ञान के प्रति भक्ति सम्पन्न जीव बहुत पुण्य बांधता है, परन्तु वास्तव में वह कर्म का क्षय नहीं करता। 166।।
जस्स हि दएणुमेत्तं वा परदब्बम्हि विज्जदे रागो। सो ण विजाणदि समयं सगस्स सब्बागम धरो वि।। अणुमात्र जेने हृदय मां परदव्य प्रत्ये राग छ । हो सर्व आगम धर भले, जाणे नहीं स्वक-समयने।। जिसे परद्रव्य के प्रति अणुमात्र भी राग हृदय में वर्तता है वह, भले सर्व आगमधर हो तथापि, स्वकीय समय को नहीं जानता। 167 ।।
तम्हा णिब्बुदि कामो णिस्संगो णिम्ममोय हविय पुणो। सिद्धे सु कुणदि भक्तिं णिब्बाणं तेण पप्पोदि।। ते कारणे मोक्षेक्षु जीव असंग ने निर्मम बनी। सिद्धो तणी भक्ति करे, उपलब्धि जेथी मोक्षनी।।
इसलिये मोक्षार्थी जीव निःसंग और निर्मम होकर सिद्धों की भक्ति (शुद्धात्मद्रव्य में स्थिरतारूप पारमार्थिक सिद्धभक्ति) करता है, इसलिये वह निर्वाण को प्राप्त करता है।।169।।
सपयत्थं तित्थयरं अभिगदबुद्धिस्स सुत्तरोइस्स। दूरतरं णिब्बाणं संजमतवसंपउत्तस्स ।। संयम तथा तपयुक्त ने पण दूरतर निर्वाण छ । सूत्रो, पदार्थों, जिनवरों प्रति चित्तमां रूचि जो रहे। संयम तप संयुक्त होने पर भी नवपदार्थों तथा तीर्थंकर के प्रति जिसकी