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जिनागम के अनमोल रत्न]
[173 बुद्धि का झुकाव वर्तता है और सूत्रों के प्रति जिसे रूचि वर्तती है, उस जीव को निर्वाण दूरतर है। 170।।
तम्हा णिब्बुदिकामो रागं सब्बत्थ कुणदु मा किंचि। सो तेण बीदरागो भवियो भवसायरं तरदि।। तेथी न करवो राग जरीये क्यांय पण मोक्षेच्छुये। वीतराग थइने ये रीते ते भव्य भवसागर तरे ।।
इसलिये मोक्षाभिलाषी जीव सर्वत्र किंचित भी राग न करो; ऐसा करने से वह भव्य जीव वीतराग होकर भवसागर को तरता है। 172 ।।
(33) समयसार वंदित्तु सब्बसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते। वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकवली भणिदं।। ध्रुव अचल अरू अनुपम गति, पाये हुए सब सिद्ध को। मैं बंद श्रुतकेवलिकथित, कहूं समयप्राभृत को अहो ॥
"वे सिद्ध भगवान, सिद्धत्व के कारण, साध्य जो आत्मा उसके प्रतिच्छन्द के स्थान पर हैं, जिनके स्वरूप का संसारी भव्यजीव चिन्तवन करके, उनके समान अपने स्वरूप को ध्याकर उन्हीं के समान हो जाते हैं,और चारों गतियों से विलक्षण पंचमगति-मोक्ष को प्राप्त करते हैं। वह पंचमगति स्वभाव से उत्पन्न हुई है, इसलिये ध्रुवत्व का अवलंबन करती है। चारों गतियां परनिमित्त से होती हैं इसलिये ध्रुव नहीं किन्तु विनाशीक हैं।1।।
एयत्तणिच्छ यगदो समओ सब्बत्थ सुन्दरो लोए। बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि।।3।। एकत्व-निश्चय-गत समय, सर्वत्र सुन्दर लोक में। उससे बने बंधनकथा, जु विरोधिनी एकत्व में।। सुदपरिचिदाणुभूदा सब्बस्स वि कामभोगबंधकहा। एयत्तस्सुबलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स।।4।।