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जिनागम के अनमोल रत्न ]
( 32 ) पंचास्तिकाय संग्रह
जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ 8 ॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो वा दोसो वा ॥ | १ || जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्क बालम्मि । इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा ॥ 30 ॥ संसारगत जे जीव छे परिणाम तेने थाय छे । परिणामथी कर्मों, करमथी गमन गतिमा थाय हो । । गति प्राप्तने तन थाय, तनथी इन्द्रियों बणी थाय छे। येनाथी विषय ग्रहाय, रागद्वेष तेथी थाय है ।। ये रीत भाव अनादिनिधन, अनादिसांत थया करे । संसारचक्र विषै जीवों ने ऐम जिनदेवो कहे ।।
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जो वास्तव में संसारस्थित जीव है उससे परिणाम होता है, परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में गमन होता है । गति प्राप्त को देह होती है, देह से इन्द्रियां होती हैं, इन्द्रियों से विषयग्रहण और विषयग्रहण से राग अथवा द्वेष होता है। ऐसे भाव संसारचक्र में जीव को अनादि-अनन्त अथवा अनादि सान्त होते रहते हैं - ऐसा जिनवरों ने कहा है ।।128-29-30।।
अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो । हवदित्ति दुक्खमोक्खं परसयपरदो हवदि जीवो ।। जिनवर प्रमुखनी भक्ति द्वारा मोक्षनी आशा धरे ।
अज्ञानथी जो ज्ञानी जीव, जो परसमयरत तेह छे ।।
'अर्हंतादि के प्रति भक्ति - अनुराग वाली मंदबुद्धि से भी क्रमशः मोक्ष होता है' इस प्रकार यदि अज्ञान के कारण ज्ञानी को भी झुकाव वर्तता है, तो तब तक वह भी सूक्ष्म परसमयरत है । 1165 ।।