SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 166] [जिनागम के अनमोल रत्न संसार के समस्त पदार्थों का ज्ञाता है, तू परमात्म-तत्त्व की वृत्ति अर्थात् आत्मा पर से भिन्न है, ये भावनारूप विज्ञान द्वारा अपने चैतन्यस्वरूप का चिन्तवन कर-उसका स्मरण कर ये बोध तुझे मेरी माता मन्दालसा दे रही है वह विचार | चैतन्यरूपोऽसि विमुक्तमारोऽभावादिकर्मासि समग्रवेदी । ध्याय प्रकामं परमात्मरूपम् मन्दालसावाक्यमुपास्स्व पुत्र ॥ 8 ॥ हे पुत्र ! स्वभाव से तू ज्ञान - दर्शनमय चेतनारूप है, कामवासना से मुक्त है, तू भावकर्म से रहित है, समस्त वस्तुतत्त्व का ज्ञाता है, इसलिये तू अपने निजस्वरूप परमात्म तत्त्व का एकाग्रता पूर्वक ध्यान कर- ऐसे अपनी माता मन्दालसा के वचनों को अंगीकार कर । इत्यष्टकैर्या-पुस्तस्तनूजान्, विबोध्य नाथं नरनाथपूज्यम् । प्राबृज्य भीता भवभोगभावात् स्वकैस्तदासौ सुगतिं प्रपेदे ॥ 19 ॥ इस प्रकार माता ने पुत्र को जन्म संस्कार से ही आठ श्लोकों द्वारा पुरूषोत्तम पुरूष तुल्य पूजनीक ऐसे भगवंत का ज्ञान कराया, जिसे विषम ऐसे सांसारिक दुखों से भयभीत होकर तथा भोग्य पदार्थों से उदासीन होकर रानी छह पुत्रों ने जिनदीक्षा ग्रहण करके स्वात्महित सिद्ध किया अर्थात् माता के सुसंस्कार से पुत्र सिद्धगति को प्राप्त हुए । इत्यष्टकं पापपराङ्मुखो यो मन्दालसाया भणति प्रमोदात् । स सद्गतिं श्री शुभचंद्रभासि संप्राप्य निर्वाणगतिं प्रपद्येत् ।। इस प्रकार पाप से पराङ्मुख होकर मन्दालसा रानी के इस अष्टक स्तोत्र का प्रसन्नता पूर्वक जो स्वाध्याय करता है वह जीव सद्गति को प्राप्त करके निर्वाण पद को प्राप्त करता है, ऐसा श्री शुभचन्द्राचार्य कहते हैं ।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy