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जिनागम के अनमोल रत्न]
[167 (31) गोम्मटसार जीवकाण्ड मिच्छंतं वेदंतो, जीवो विवरीयदसणो होदि।
ण य धम्मं रोचेदि हु, मुहुरं खु रसं जहां जरिदो।। मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से उत्पन्न होने वाले मिथ्या परिणामों का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धानवाला हो जाता है। उसको जिस प्रकार पित्तज्वर से युक्त जीव को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार यथार्थ धर्म भी नहीं रूचता।।17।।
सम्माइट्ठी जीवो, उवइठं पवयणं तु सद्दहदि। सद्दहदि असव्भावं अजाणमाणो गुरूणियोगा।।
सम्यग्दृष्टि जीव आचार्यों के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान करता है, किन्तु अज्ञानतावश गुरू के उपदेश से विपरीत अर्थ का भी श्रद्धान कर लेता
भावार्थ :- स्वयं के अज्ञानवश "अरिहंत देव का ऐसा ही उपदेश है" ऐसा समझकर यदि कदाचित् किसी पदार्थ का विपरीत श्रद्धान भी करता है तो भी वह सम्यग्दृष्टि ही है; क्योंकि उसने अरिहंत का उपदेश समझकर उस पदार्थ का वैसा श्रद्धान किया है।।27।। परन्तु
सुत्तादो तं सम्म, दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि। सो चेव हबइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी।।
गणधरादि कथित सूत्र के आश्रय से आचार्यादिक के द्वारा भले प्रकार समझाये जाने पर भी यदि वह जीव उस पदार्थ का समीचीन श्रद्धान न करे तो वह उसी काल से मिथ्यादृष्टि हो जाता है।।28।।
णो इंदियेसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि। जो सद्दहदि जिणुत्तं, सम्माइट्ठी अविरदो सो।।
जो इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है वह अविरति सम्यग्दृष्टि है।।29।।