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जिनागम के अनमोल रत्न ]
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एकोऽसि मुक्तोऽसि चिदात्मकोऽसि चिद्रूपभावोऽसि चिरन्तनोऽसि । अलक्ष्य भावो जहि देहमोहम् मन्दालसा वाक्यमुपास्स्व पुत्र ॥ 4 ॥
हे पुत्र ! एकत्व तेरा स्वरूप है, तू किसी के आश्रित नहीं, संसारबंधनों से मुक्त है, चिद्रूप तेरा स्वभाव है, तू चिरन्तन है, जिससे तेरा स्वरूप सामान्य जीवों के लक्ष्य में नहीं आ सकता। इसलिये देहात्म बुद्धि का त्याग कर, ये लक्ष तेरी माता मन्दालसा तुझसे कह रही है उसे तू ग्रहण कर ।
निष्कामधामासि विकर्मरूपो रत्नत्रयात्मासि परं पवित्रं । बेत्तासि चेतोऽसि विमुञ्च कामं मन्दालसावाक्यमुपास्स्व पुत्र ।।5।।
हे पुत्र ! सर्व इच्छा रहित निष्काम होने से तू तेजस्वी है, कर्मों का नाश - अभाव होने से तू विकर्मा है - कर्म तेरा स्वभाव नहीं, तेरा स्वरूप तो सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र की ऐक्यता ये है। तू परम शुद्ध पवित्र है, तू सर्वज्ञ है, त्रिकालवर्ती भावों का ज्ञाता है, तेरा स्वरूप शुद्ध चैतन्य है, इसलिये कामनाओं का तू नाश कर, त्याग कर, तेरी माता की शिक्षा ध्यान पूर्वक हृदय में उतार ।
प्रमादमुक्तोऽसि सुनिर्मलोऽसि अनंतबोधादिचतुष्टयोऽसि । ब्रह्मासि रक्ष स्वचिदात्मरूपम् मन्दालसावाक्यमुपास्स्व पुत्र ।।6।।
हे पुत्र ! प्रमादरहित तू अप्रमत्त है, तू रागद्वेष रहित है, तू निर्मल स्वभावी है, अनंत दर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य ये तेरा स्वरूप है, तू ब्रह्मा है, शुद्धात्मा है, देहादिस्वरूप तू नहीं, इसलिये तू अपने चैतन्यस्वरूप की रक्षा कर-इस प्रकार तेरी माता मन्दालसा तुझे पालने में ही तुझे जाग्रत कर रही है, समझा रही है, उसे तू ग्रहण कर । 16 ।।
कैवल्यभावोऽसि निवृत्तयोगो, निरामयोज्ञानसमस्ततत्त्वः । परात्मवृत्तिस्स्मर चित्स्वरूपं मन्दालसावाक्यमुपास्स्वं पुत्र ।। 7 ।।
हे पुत्र ! तू केवलज्ञान स्वभावी है, तू मन-वचन-काय की चंचलता रहित निवृत्तयोगी है, तू निरामय अर्थात् रोगरहित है - भावरोग से मुक्त है,