________________
जिनागम के अनमोल रत्न]
[159 संसारासार कर्मप्रचुरतर-मरुत्प्रेरणाद भ्राम्यताऽत्र, भ्रातर्ब्रह्माण्डखण्डे नव-नव-कुवपुर्गृहणता मुञ्चता च। कः कः कौतस्कुतः क्व क्वचिदपि विषयो यो न भुक्तो न मुक्तः, जातेदानी विरक्तिस्तव यदि विश रे! ब्रह्म गम्भीरसिन्धुम्।।
हे भाई! इस संसार में, संसार में निःसार कर्मरूपी अधिक प्रबहमान वायु की प्रेरणा से भ्रमण करते हुए और ब्रह्माण्ड के विविध भागों में नये-नये कुत्सित शरीरों को धारण करते और छोड़ते हुए, तुम्हारे द्वारा कौन-कौन सा, किस-किस प्रकार से और कहां-कहां विषय है जो न भोगा गया हो और न भोगकर छोड़ा गया हो। यदि तुम्हारे मन में अब विरक्ति उत्पन्न हुई हो तो हे भाई ! ब्रह्मरूपी गम्भीर समुद्र में प्रवेश कर जाओ।।74 ।।
दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां 'ततः किम्' जाताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः किम्। सन्तर्पिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किम्,
कल्पस्थितं तनुभृतां तनुभिस्ततः किम्।। शत्रुओं के सिर पर पांव रखा तो क्या हुआ? समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली ऐश्वर्य विभूतियां हुई तो भी क्या हुआ? वैभव-सम्पत्ति से इष्टजनों को सन्तृप्त किया तो भी क्या हुआ? शरीर धारियों के शरीरों द्वारा कल्पान्त तक (बहुत समय तक) जीवित रहा तो भी क्या हुआ? अर्थात् यदि अविनाशी आत्मिक सुख न मिला तो ये सब भौतिक सुख साधनों का एक न एक दिन अभाव होगा तथा मृत्यु का मुख देखना पड़ेगा।।77।। । हे जीव ! जब तक वृद्धावस्था नहीं आती, जब तक रोग रूपी अग्नि |
शरीर रूपी तेरी झोपड़ी को नहीं जलाती, जब तक इन्द्रियों की शक्ति कम नहीं होती, तब अपना आत्महित कर ले।
श्री भावपाहङ
888888838