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[जिनागम के अनमोल रत्न
'यह मेरा शत्रु है, मैं इसके उपकार को मानता हूँ' इत्यादि रूप संकल्प जन्य दुख की भयंकर आग से जलने वाले अज्ञानी जगत को देखकर तुम भय से किंचित् मात्र भी नहीं कांपते ? (अरे!) तुम रोओ ! क्रन्दन करो! हाय ! उन्हीं के समान तुम भी क्यों कूद रहे हो? संसार में ही प्रसन्न होकर क्यों नाच रहे हो । ।17 ।।
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यदि चलति कथञ्चिन्मानसं स्वस्वरूपाद्, भ्रमति बहिरतस्ते
सर्वदोषप्रसंग: । संविग्नचित्तः,
तदनवरतमन्तर्मग्न
भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ।।
अगर किसी कारणवश तुम्हारा मन - उपयोग अपने निज (शुद्धात्मं ) स्वरूप से चलायमान हो जाता है और बाहर में भटकता है तो उक्त कारण से सर्वदोषों का प्रसंग आता है, इसलिये निरन्तर अन्तर्मग्न संविग्नचित्त वाले हो, जिससे तुम संसार के विनाश से स्थायी धाम ( मुक्तिधाम) के स्वामी हो जाओगे । 161
बहिरबहिर सारे दुःखभारे शरीरे, क्षयिणि वत रमन्ते मोहिनोऽस्मिन् बराकाः । इति यदि तब बुद्धिर्निर्विकल्पस्वरूपे, भव, भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ।।
बाहर और भीतर सारहीन, दुखों के भार से लदे हुए, विनाशशील, इस शरीर में खेद है! कि विचारे मोहग्रस्त प्राणी, रमण करते हैं; यदि इस प्रकार की तुम्हारी बुद्धि हुई है तो निर्विकल्प निजस्वरूप में समा जाओ, जिससे तुम भवभ्रमण का नाश हो जाने से स्थायीधाम के स्वामी हो जाओगे ।
भावार्थ :- स्वरूप का रसिक हुए बिना शरीर से विरक्ति नहीं हो सकती है ।163।।