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जिनागम के अनमोल रत्न |
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( 27 ) अमृताशीति रत्नार्थिनी यदि कथं जलधिं विमुंचेत्, रूपार्थिनी च पंचशरं कथं वा? दिव्योपभोगनिरता यदि नैव शऋम्,
कृष्णाश्रयादवमता न गुणार्थिनी श्रीः ।। (लक्ष्मी) यदि रत्नों की इच्छा रखती थी तो उसने रत्नाकर समुद्र को क्यों छोड़ा? और यदि रूप सौन्दर्य की अभिलाषिणी थी तो कामदेव को क्यों छोड़ा? यदि दिव्य भोगोपभोगों की रसिका थी तो इन्द्र का साथ नहीं छोड़ना चाहिये था, किन्तु उसने इन सबका साथ छोड़कर कृष्ण का संग स्वीकार किया, इससे यह सुस्पष्ट है कि यह लक्ष्मी गुणों को चाहने वाली नहीं हैं । भावार्थ-तात्पर्य यह है कि कलिकाल में (मुख्यतः ) गुणहीन व्यक्ति ही धनवान है।।8।।
अज्ञानमोहमदिरां परिपीय मुग्धम्, हा हन्त ! हन्ति परिबल्गति जल्पतीष्टम् । पश्येदृशं जगदिदं पतितं पुरस्ते, किं कूर्दसे त्वमपि बालिश ! तादृशोऽपि ।। अज्ञान और मोहरूपी मदिरा को पीकर जो व्यक्ति मुग्ध-मूढ़ हुआ है, अत्यन्त खेद है! कि वह मारता है, इधर-उधर दौड़ता है-भटकता है, (अनुचित बात को भी) बकवास करता है। तुम्हारे सामने पतन को प्राप्त इस जगत को देखो। हे मूर्ख ! तुम भी उन अज्ञानियों जैसी ही उछलकूद क्यों कर रहे हो? ।।16 ।।
बैरी ममायमहमस्य कृतोपकारः, इत्यादि दुःखघनपावक पच्यमानम् । लोकं विलोक्य न मनागपि कंपसेत्वम्, क्रन्दं कुरूस्व बत तादृश कुर्दसे किम् ?