________________
[जिनागम के अनमोल रत्न
स्तुति और निन्दा के सर्वोत्कृष्ट भाग को ये दो ही जीव प्राप्त होते हैं । एक तो जो तप के लिये चक्रवर्ती की सम्पदा छोड़ते हैं और एक वे जो विषय की आशा से तप को छोड़ते हैं । 164 ।।
इतस्तश्च त्रस्यन्तो विभावर्यां यथा मृगाः । वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलौ कष्टं तपश्विनः ।।
जैसे मृग दिन में वन में भ्रमण करके सिंहादिक के भय से रात्रि में ग्राम के समीप आकर रहते हैं, ऐसे कलिकाल में मुनि भी दिन में वन निवास कर रात्रि में ग्राम के समीप आवें सो हाय ! हाय ! यह बड़ा कष्ट है। मुनि महा निर्भय, वे मृगों की तरह ग्राम के समीप कैसे आकर बसते हैं? ।।197 ।। बरं गार्हस्थ्यमे वाद्य तपसो भाविजन्मनः । श्वः स्त्रीकटाक्षलुण्टाक लोप्य वैराग्य सम्पदाः ।।
156]
इस जगत में स्त्रियों के जो कटाक्ष वे ही हुए लुटेरे, उनसे वैराग्य सम्पदा लुटाकर दीन हुआ और होने वाला है संसार भ्रमण जिससे, ऐसे तप से तो गृहस्थपना ही श्रेष्ठ है ।।198 ।।
विषय से विरक्तता, परिग्रह का त्याग, कषायों का निग्रह, सम अर्थात् शांतता, रागादिक का त्याग, दम-मन इन्द्रियों का निरोध, यम- यावत् जीव हिंसादि पापों का त्याग, तिनका धारणं, तत्त्व का अभ्यास, तपश्चरण का उद्यम, मन की वृत्ति का निरोध, जिनराज में भक्ति, जीवों की दया ये सामग्री विवेकी जीवों के संसार समुद्र का तट निकट आने पर होती है ।।224 ।। भावयामि भवावर्ते भावनाः प्रागभाविताः । भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ।।
मैं संसाररूप भ्रमण के मध्य भव भ्रमण के अभाव के लिये पूर्व में न भायी जो सम्यग्दर्शनादि भावना उनको भाता हूँ और जो मैंने पूर्व में मिथ्यादर्शनादि भावना अनादि काल से भायीं हैं उनको नहीं भाता हूँ ।। 238 ।।