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जिनागम के अनमोल रत्न] होते हैं तथा अब यह पंचमकाल ऐसा निकृष्ट है जिसमें सच्चे धर्म के कहने वाले और सुनने वाले भी थोड़े ही पाये जाते हैं। कहने वाले तो अपने लोभ मानादिक के अर्थी हुए इसलिये यथार्थ नहीं कहते और सुनने वाले जड़वक्र हुए इसलिये परीक्षा रहित हठग्राही होते हुए यथार्थ सुनते नहीं तथा कहना सुनना ही दुर्लभ हुआ तो अंगीकार करने की तो क्या बात! इस तरह इस काल में धर्म दुर्लभ हुआ है सो न्याय ही है। यह पंचमकाल ऐसा निकृष्ट है जिसमें सर्व ही उत्तम वस्तुओं की हीनता होती आती है, तो धर्म भी तो उत्तम है, इसकी वृद्धि कैसे हो? इसलिये ऐसे निकृष्ट काल में जिसे धर्म की प्राप्ति होती है वह ही धन्य है। 143।।
कलिकाल में नीति तो दंड है। दंड दिये न्याय मार्ग चलता है तथा यह दंड राजाओं से होता है, राजा के बिना अन्य देने को समर्थ नहीं तथा राजा धन के लिये न्याय करते हैं जिसमें धन आने का प्रयोजन नहीं सधता, ऐसा न्याय राजा करते नहीं तथा यह धन मुनियों के पाया नहीं जाता, उनका भेष ही धनादिक रहित है। इसलिये तो इन भ्रष्ट हुए मुनियों को राजा न्यायमार्ग में चलाते नहीं तथा आचार्य हैं वे अपने लिये विनय नमस्कारादिक कराने के लोभी हुए। वो नम्रीभूत हुए जो मुनि उन्हें न्यायमार्ग में प्रवर्ताते नहीं। ऐसे इस काल में तपस्वी मुनि जिनके भला आचरण पाया जाता है वे जैसे शोभायमान उत्कृष्ट रत्न थोड़े पाये जाते हैं वैसे थोड़े विरले पाये जाते हैं। ___ भावार्थ-इस पंचमकाल में जीव जड़वक्र उपजते हैं वे दंड का भय बिना न्यायमार्ग में नहीं प्रवर्तते तथा लोक पद्धति में दंड देने वाला राजा है,
और धर्म पद्धति में आचार्य हैं । वहाँ राजा तो धन का प्रयोजन सधे वहां न्याय करे, मुनियों के धन नहीं इसलिये राजा मुनियों पर न्याय चलाता नहीं, जैसे प्रवर्ते वैसे प्रवर्तो तथा आचार्य हैं वे विनय के लोभी हुए सो दंड देते नहीं। अतः भय बिना मुनि स्वछंद हुए हैं। कोई विरले मुनि यथार्थ धर्म के साधने वाले रहे हैं। 149।।
परां कोटिं समारूढौ द्वावेव स्तुतिनिन्दयोः। यस्त्यजेत्तपसे चक्रं यस्तपो विषयाशया।।