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[जिनागम के अनमोल रत्न भावार्थ -जो महा निद्रा के वश हो वह भी इतने कारण पाकर जाग्रत हो जाते हैं, जो किसी मुद्गर की चोट मार्मिक स्थान में दे तो निद्रा चली जाती है, अथवा अग्नि का आतप देह को लगे तो निद्रा जाती रहे तथा वादित्रों के नाद सुने तो निद्रा चली जाये। सो ये अविवेकी जन पापकर्म के उदयरूप मुद्गरों के द्वारा मर्म स्थानों पर मारे जाते हैं, और दुखरूप अग्नि से इसका देह जलता है तथा आज यह मरा, आज यह मरा ऐ शब्द यम के वादित्रों के नाद निरन्तर सुनता है, तो भी यह अकल्याणकारिणी मोहनिद्रा नहीं तजता, यह बड़ा आश्चर्य है!! ।।57।।
इस अल्प आयु और चंचल काय के बदले शाश्वत पद मिले तो फूटी कोड़ी के बदले चिन्तामणि आया जानना ।।70 ।।
यह मनुष्यपना है सो घुन से खाया काने गन्ने के समान है। आपदारूपी गांठों से तन्मय है तथा अन्त में बिरस है। मूल में भी भोगने योग्य नहीं है, सर्वांग में क्षुधा, फोढ़ा, कोढ़, कुथितादि भयानक रोग उनके छिद्रों सहित है तथा एक नाम मात्र ही रमणीक है और सर्व प्रकार असार है। यहाँ इसे तू शीघ्र धर्म साधन से परलोक का बीज करके सार सफल कर ।।81।। ,
जहजायरूवरारिसो तिलतुसमित्तं ण गहदि अत्थेसु। जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोयं ।।
यथा जातरूप सदृश नग्न मुनि है वह पदार्थों में तिल का तुष मात्र भी ग्रहण न करे। जो थोड़ा बहुत ग्रहण करे तो उससे निगोद जाता है। सो यहाँ देखो गृहस्थ तो बहुत परिग्रह का धारी थोड़ा सा भी धर्म साधे तो भी शुभ गति पाता है और मुनि थोड़ा सा भी व्रत भंग करे तो निगोद जाता है।।अ.पा. ।।
लोकद्वयहितं वक्तुं श्रोतुं च सुलभाः पुरा। दुर्लभाः कर्तुमद्यत्वे वक्तुं श्रोतुं च दुर्लभाः॥
भावार्थ :- जो धर्म इस लोकवि अर परलोकवि जीव का भला करे ऐसे धर्म के कहने वाले और सुनने वाले पूर्व में चौथे काल में बहुत थे और अंगीकार करने वाले तब भी थोड़े ही थे, क्योंकि संसार में धर्मात्मा थोड़े ही