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जिनागम के अनमोल रत्न]
[153 प्राणी को मिल जाये तो भी तृष्णा न भगे। किसके क्या कितना आये। इसलिये तेरे विषय की वांछा वृथा है।।36।।
स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं या नासुखम् । .. तज्ज्ञानं या नाज्ञानं सा गतिर्यत्र नागतिः।।
धर्म वही जिसमें अधर्म नहीं । सुख वही है जिसमें दुख नहीं। ज्ञान वही है जिसमें अज्ञान नहीं तथा गति वही है जहां से फिर वापिस आना नहीं।।46 ।।
हे विषय के लोलुपी! विचार रहित!! तू जो असि, मसि, कृषि, वाणिज्यादि उद्यम कर इस लोक में धन के उपार्जन के लिये बारम्बार क्लेश करता है, सो ऐसा उपाय जो एक बार परलोक के लिये करे तो फिर जन्ममरणादि दुख न पावे। अहो! तू धन का साधन छोड़कर धर्म का साधन कर। 47 ।।
. भावार्थ :- भोग-तृष्णारूप आशा नदी, में तू अनादि काल से बहता चला आ रहा है, सो इसके तिरने को आत्मज्ञान के द्वारा तू ही समर्थ है, और उपाय नहीं। ज्ञान ही से आशा मिटै। इसलिये अब पराधीनता तज शीघ्र ही स्वतन्त्र हो, आशा नदी के पार जाओ, नहीं तो संसार समुद्र के मध्य डूबेगा, इस संसार सागर में कालरूप ग्राह अति प्रबल है, सदा मुख फाड़े ही रहता है, उसका गंभीर मुख अतिविषम है, जगत को निगलता है। इसलिये तू काल से बचना चाहता है, काल के मध्य नहीं पड़ना चाहता है तो आशारूप नदी के पार जाओ।।49 ।।
हे भ्रात! तू भ्रांति तज, क्या आँखों से प्रत्यक्ष नहीं देखता है। यह जगत कालरूप पवन से निर्मूल किया जा रहा है। किसी के नाम मात्र भी स्थिरता नहीं। जिस दिवस का प्रभात होता है वही दिवस अस्त को प्राप्त होता है। इसलिये तू किस कारण जगत में बारम्बार आशा बांधकर भ्रमण कर रहा है। 52।।