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[जिनागम के अनमोल रत्न (28) बारस अणुवेक्खा एक्कोहं णिम्मओ सुद्धो णाणदंसणलक्खणो। सुद्धे यत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ . संजदो।। मैं एक हूँ, ममता रहित हूँ, शुद्ध हूँ और ज्ञान दर्शन लक्षण वाला हूँ, इसलिये शुद्ध एकत्व ही उपादेय है, ऐसा संयमीओं को चिन्तवन करना चाहिये।।20।।
अण्णो अण्णं सोयदि मदोत्ति मम णाह गोत्ति मण्णत्तो। अप्पाणं ण हु सोयदि संसारमण्णवे बुड्डू ।।
जीव इस संसाररूप महासागर में डूबे हुए अपने आत्मा की चिन्ता तो करता नहीं, परन्तु अन्य-अन्य की चिन्ता करता है तथा ये मेरा है, ये मेरा स्वामी है ऐसा माना करता है।।22 ।। . पारंपज्जाएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिब्बाणं।
संसारगमणकारणमिदि शिंदं आसवो जाण।।
कर्म का आश्रव करने वाली (पुण्य की) क्रिया से परम्परा से भी निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता; इसलिये संसार में भटकने के कारणरूप आश्रव को निन्द्य जानो।।59।।
पुब्बुत्तासवभेया णिच्छयणएण णत्थि जीवस्स। उह यासबणिम्मुक्कं अप्पाणं चिन्तए णिच्चं ।।
पूर्वोक्त मिथ्यात्व, अविरति आदि आश्रव के भेद कहे वे निश्चयनय से जीव के होते ही नहीं; इसलिये आत्मा का द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के आश्रव से रहित चिन्तवन सदा करना चाहिये।।60।।।
जीवस्स ण संवरणं परमत्थणयेण सुद्धभावादो। संवरभावविमुक्कं अप्पाणं चिन्तये णिच्च ।। परम शुद्ध निश्चयनय से जीव में संवर ही नहीं; इसलिये संवर के