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[जिनागम के अनमोल रत्न
(26) आत्मानुशासनम् जना घनाश्च वाचालः सुलभाः स्युर्वथोत्थिता। दुर्लभा ह्यन्तरार्दास्ते जगदभ्युज्जिहीर्षवः।।
मनुष्य तो खोटे उपदेशादिरूप वचन कहने वाले और मेघ खोटे गर्जने वाले तथा मनुष्य तो निरर्थक महंतता से उद्धत हुए और मेघ निरर्थक बादल रूप उठे, ऐसे मनुष्य व मेघ सुलभ हैं । परन्तु मनुष्य तो अन्तरंग धर्म बुद्धि से भीगे और मेघ अन्तरंग जल से भीगे, तथा मनुष्य तो संसार दुख से जीवों का उद्धार करने की इच्छा को धारे और मेघ अन्नादिक उपजाने से लोक का उद्धार करने के कारणपने को धारे, ऐसे मनुष्य व मेघ दुर्लभ हैं।।4।।
प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्त लोकस्थितिः, प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृश्टोत्तरः। प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया, ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः।।
जो त्रिकालवर्ती पदार्थों को विषय करने वाली प्रज्ञा से सहित है, समस्त शास्त्रों के रहस्यों को जान चुका है, लोक व्यवहार से परिचित है, अर्थलाभ और पूजा-प्रतिष्ठा आदि की इच्छा से रहित है, नवीन-नवीन कल्पना की शक्तिरूप अथवा शीघ्र उत्तर देने की योग्यतारूप उत्कृष्ट प्रतिभा से सम्पन्न है, शान्त है, प्रश्न करने के पूर्व में ही वैसे प्रश्न के उपस्थित होने की सम्भावना से उसके उत्तर को देख चुका है, प्रायःअनेक प्रकार के प्रश्नों के उपस्थित होने पर उनको सहन करने वाला है, श्रोताओं के ऊपर प्रभाव डालने वाला है, उनके मन को हरने वाला आकर्षित करने वाला तथा उत्तमोत्तम अनेक गुणों का स्थानभूत है; ऐसा संघ का स्वामी आचार्य दूसरों की निन्दा न करके स्पष्ट एवं मधुर शब्दों में धर्मोपदेश देने का अधिकारी होता है। ।। ।।
भव्यः किं कुशलं गमेतिविमृशन् दुःखाभृशं भीतवान्, सौख्यैषी श्रवणादि बुद्धिविभवः श्रुत्वाविचार्य स्फुटम्।