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जिनागम के अनमोल रत्न]
[151 धर्मं शर्मकरं दयागुणमयं युक्त्या गमाभ्यां स्थितं, गृह्णन्धर्मकथां श्रुतावधिकृतः शास्यो निरस्ताग्रहः।।
जो शिष्य है सो धर्मकथा सुनने विर्षे अधिकारी किया है। कैसा? प्रथम तो भव्य हो; क्योंकि जिसका भवितव्य भला होने का न हो तो सुनना कैसे कार्यकारी हो? तथा मेरा कल्याण क्या है ऐसा विचारता हो, क्योंकि जिसके अपना भला बुरा होने का विचार नहीं, वह क्यों सीख सुने तथा दुख से अतिशय डरता हो, क्योंकि जिसके नरकादिक का भय नहीं, वह पाप छोड़ने का शास्त्र क्यों सुने? तथा श्रवण आदि बुद्धि का वैभव जिसके पाया जाता हो। सुनने की इच्छा का नाम शुश्रुषा है। सुनने का नाम श्रवण है। मन से जानने का नाम ग्रहण है। न भूलने का नाम धारण है। विशेष विचार करने का नाम विज्ञान है। प्रश्नोत्तर कर निर्णय करना उसका नाम ऊहापोह है। तत्त्व श्रद्धान के अभिप्राय का नाम तत्त्वाभिनिवेश है। ऐसे ये बुद्धि के गुण हैं सो उसके पाये जाते हैं, क्योंकि इनके बिना शिष्यपना नहीं बनता तथा सुखकारी, दया गुणमयी, अनुमान आगम करि सिद्ध हुआ ऐसा जो धर्म उसे सुनकर विचार कर ग्रहण करता हो, क्योंकि ऐसा ही धर्म, ऐसे ही शिष्य को कार्यकारी होता है तथा जिसके खोटा हठ नष्ट हुआ हो, क्योंकि हठ से आपाथापी हो उसे सीख नहीं लगती।
भावार्थ :- ऐसे गुण सहित हो वह धर्म कथा सुनने का अधिकारी है, उसका भला होता है। इन गुणों के बिना धर्म कथा के सुनने का अधिकारी नहीं होता।।7।।
शमबोधवृत्ततपसां पाषाणस्येव गौरवं पुंसः। पूज्यं महामणेरिव तदेव सम्यक्त्व संयुक्तम्।।
पुरूष-आत्मा उसके मंदकषायरूप उपशम परिणाम शास्त्राभ्यासरूप ज्ञान, पापत्यजनरूप चारित्र, अनशनादिरूप तप, इनका महंतपना है वह पाषाण के बोझ समान है। विशेष फल का दाता नहीं तथा वही सम्यक्त्व