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जिनागम के अनमोल रत्न]
[149 ___अन्न के ग्रास के भोजन से मांस के ग्रास के भोजन में जिस प्रकार राग अधिक होता है उसी प्रकार दिन के भोजन की अपेक्षा रात्रि भोजन में निश्चय से अधिक राग होता है। 132 ।।
येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति।। येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति।। येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति।। रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य। आश्रवति यत्तु पुण्यं . शुभोपयोगोऽयमपराधः।।
आत्मा के जितने अंश में सम्यकदर्शन है उतने अंश में उसे बंध नहीं है तथा जितने अंश में राग है उतने अंश में उसे बंध है। जितने अंश में सम्यक्ज्ञान है उतने अंश में उसे बंध नहीं है, तथा जितने अंश में राग है उतने अंश में उसे बंध है। जितने अंश में उसे चारित्र है उतने अंश में उसे बंध नहीं है, तथा जितने अंश में उसे राग है उतने अंश में उसे बंध है।
इस लोक में रत्नत्रयरूप धर्म निर्वाण का ही कारण होता है, अन्य गति का नहीं और जो रत्नत्रय में पुण्य का आश्रव होता है वह अपराध शुभोपयोग का है ।।220।।
एके नाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी।
दही की मथानी की रस्सी को खींचने वाली ग्वालिनी की तरह जो वस्तु के स्वरूप को एक अन्त से अर्थात् द्रव्यार्थिकनय से आकर्षण करती हैखींचती है, और फिर दूसरी पर्यायार्थिकनय से शिथिल करती है, वह जैनमत की न्याय पद्धति जयवन्ती है। 225 ।।