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[जिनागम के अनमोल रत्न हिंसा ही हैं। असत्य वचनादि के भेद केवल शिष्यों को समझाने के लिये उदाहरणरूप कहे गये हैं।
अप्रादुर्भावः खलु रागादिनां भवत्यहिं सेति। तेषामेवोत्पत्तिहिँ सेति जिनागमस्य संक्षेपः।।44।।
निश्चय से रागादि भावों का प्रगट न होना यही अहिंसा है और उन रागादि भावों का उत्पन्न होना ही हिंसा है, ऐसा जिनागम का सार है।
युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि। न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव।।45 ।।
और योग्य आचरण वाले सन्त पुरूष के रागादि भावों के बिना केवल प्राण पीड़न करने मात्र से कदाचित् हिंसा नहीं होती।
व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम्। म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा।।46।।
रागादिभावों के वश में प्रवर्तती हुई अयत्नाचाररूप प्रमाद अवस्था में जीव मरो अथवा मत मरो हिंसा तो निश्चय से आगे ही दौड़ती है।
यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम्। पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु।।47।।
कारण कि जीव कषाय भाव युक्त होने से प्रथम अपने से ही अपने को घात करता है और पीछे से भले ही दूसरे जीवों की हिंसा हो अथवा न हो।।
हिंसाया अविरमणं हिंसा परिणमनपि भवति हिंसा। तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ।।48 ।। हिंसा से विरक्त न होने से हिंसा होती है और हिंसा रूप परिणमन करने से भी हिंसा होती है, इसलिये प्रमाद के योग में निरन्तर प्राणघात का सद्भाव है।